Bhojpuri Rap ‘mumbai Mein Ka Ba’ Starring Manoj Bajpai Made His Home Overnight In The Hearts Of Biharis – जंगलराज बनाम सुशासन के बीच ‘बिहार में का बा’ मुद्दे की घुसपैठ के पीछे युवा वर्ग

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मनोज बाजपेई अभिनीत भोजपुरी रैप ‘मुंबई में का बा’ ने रातों-रात बिहारियों के दिल में अपना घर बना लिया है। बिहार में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले आए इस ऐप में राज्य और राज्य के प्रवासियों की बदहाली के संदर्भ में व्यवस्था से पूछे गए सुलगते सवाल अब दूसरे माध्यमों से प्रकट हो रहे हैं। बीते तीन दशक तक जंगलराज बनाम सुशासन के मुद्दे पर केंद्रित रही राजनीति में अब ‘बिहार में का बा’ ने घुसपैठ कर ली। जंगलराज बनाम सुशासन के बीच ‘बिहार में का बा’ मुद्दे की घुसपैठ के पीछे युवा वर्ग है जिनका मिजाज फिलहाल सियासी दलों के लिए पहेली है।

इस चुनाव में नया क्या

सवाल यह है कि इस चुनाव में नया क्या है? जाहिर तौर पर सियासी दल चुनाव पूर्व गठबंधन अपने अपने एजेंडे और जातीय समीकरण के तीन दशक पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं। नया है तो बस राज्य के एक चौथाई युवा मतदाता, जिसमें से आधी आबादी का न तो 15 साल के कथित जंगलराज से पाला पड़ा है और न ही 15 साल के कथित सुशासन की सियासी परिभाषा उनके गले उतर रही है।

जातीय गोलबंदी या बदलेगा समाज

नारे बहुत लगे मगर बिहार की राजनीति जातीय गोलबंदी से बाहर नहीं आ पाई। हालांकि कई बार कई दलों ने जातीय सीमा टूटने वाला बाग जरूर किया मगर हकीकत यह थी कि सियासत में जाति का महत्व पहले की तरह बरकरार रहा। बस अलग-अलग जातियों के बीच नए तरह के समीकरण बनते बिगड़ते रहे। मसलन 1990 से 2005 तक लालू प्रसाद यादव ने पिछड़ी जातियों के बड़े हिस्से और मुसलमानों के समर्थन से सत्ता हासिल की।

एमवाई (मुस्लिम यादव) समीकरण खासा कारगर रहा। साल 2005 में नीतीश और भाजपा ने पिछड़ी जातियों और आंकड़ों के समर्थन से लालू की सियासी बादशाह को खत्म किया। इस चुनाव में भी एनडीए और महागठबंधन एक दूसरे को मात देने में जुटे हैं।

युवा वर्ग निभाएगा निर्णायक भूमिका

इस चुनाव में सियासी दलों के लिए युवा वर्ग पहेली बने हुए हैं कारण इनकी संख्या है राज्य की एक चौथाई आबादी 39 साल से कम आयु 3.6 करोड़ की है। इनमें 29 साल से कम उम्र वाले मतदाताओं की संख्या 1.70 करोड़ है। इन मतदाताओं में सौ से अधिक सीटों का परिणाम बदलने की क्षमता है। राष्ट्रीय जनता दल की अगुवाई वाला महागठबंधन और एनडीए दोनों इस वर्ग को लुभाने के लिए हाथ-पांव मार रहे हैं।

आमतौर पर छोटा भाषण देने वाले बिहार के सीएम लंबा भाषण दे रहे हैं। बड़े बुजुर्गों को युवाओं के सामने अपनी बात विस्तार से रख रहे हैं। उन्हें लालू प्रसाद के कार्यकाल के कथित जंगल राज के बारे में बताने की अपील कर रहे हैं। दूसरी और राजद का चेहरा तेजस्वी इन्हीं युवाओं के बीच बेरोजगारी, पलायन, शिक्षा क्षेत्र की बदहाली का मुद्दा उठा रहे हैं।

जातिगत समीकरण कौन कहां

नब्बे के दशक में लालू को पिछड़ों और मुसलमानों का जबरदस्त समर्थन मिला था। इसकी बदौलत वह डेढ़ दशक तक बिहार की सियासत के सिरमौर रहे। बाद में धीरे-धीरे ओबीसी में शामिल दलों के खिलाफ दूसरी पिछड़ी जातियों के समानांतर ध्रुवीकरण का सिलसिला शुरू हुआ। राज्य की सियासत में नीतीश के उदय के बाद यह पिछड़ी जातियां उनके साथ गोलबंद हुई। भाजपा के साथ गठबंधन के बाद एनडीए से अगली जातियों के अलावा तीन चौथाई पिछड़ी जातियां साथ आई। इसी समीकरण के सहारे नीतीश ने लालू की तर्ज पर डेढ़ दशक तक बिहार की सियासत में अपना दबदबा कायम किया।

कैसे प्रभावित हो सकते हैं नतीजे

नतीजों में फेरबदल तभी संभव है कि जब राजद की अगुवाई वाले महागठबंधन में मुस्लिम यादव के इधर अन्य जातियों का भी समावेश हो। राजद 15 साल से सत्ता से बाहर रहा है। मगर सच्चाई यह है कि राजद के साथ मुस्लिम यादव हमेशा बने रहे। इस चुनाव में मुस्लिम और यादव के इतर दूसरी जातियां भी राजद से जुड़ी तो एनडीए के लिए मुश्किलें खड़ी होंगी। इसके उलट स्थिति में अगर पहले की तरह यादवों के इतर दूसरी पिछड़ी जातियां और अगली जातियां एनडीए के साथ रही तो परिणामों में कोई बदलाव नहीं आएगा।

 

मनोज बाजपेई अभिनीत भोजपुरी रैप ‘मुंबई में का बा’ ने रातों-रात बिहारियों के दिल में अपना घर बना लिया है। बिहार में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले आए इस ऐप में राज्य और राज्य के प्रवासियों की बदहाली के संदर्भ में व्यवस्था से पूछे गए सुलगते सवाल अब दूसरे माध्यमों से प्रकट हो रहे हैं। बीते तीन दशक तक जंगलराज बनाम सुशासन के मुद्दे पर केंद्रित रही राजनीति में अब ‘बिहार में का बा’ ने घुसपैठ कर ली। जंगलराज बनाम सुशासन के बीच ‘बिहार में का बा’ मुद्दे की घुसपैठ के पीछे युवा वर्ग है जिनका मिजाज फिलहाल सियासी दलों के लिए पहेली है।

इस चुनाव में नया क्या

सवाल यह है कि इस चुनाव में नया क्या है? जाहिर तौर पर सियासी दल चुनाव पूर्व गठबंधन अपने अपने एजेंडे और जातीय समीकरण के तीन दशक पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं। नया है तो बस राज्य के एक चौथाई युवा मतदाता, जिसमें से आधी आबादी का न तो 15 साल के कथित जंगलराज से पाला पड़ा है और न ही 15 साल के कथित सुशासन की सियासी परिभाषा उनके गले उतर रही है।

जातीय गोलबंदी या बदलेगा समाज
नारे बहुत लगे मगर बिहार की राजनीति जातीय गोलबंदी से बाहर नहीं आ पाई। हालांकि कई बार कई दलों ने जातीय सीमा टूटने वाला बाग जरूर किया मगर हकीकत यह थी कि सियासत में जाति का महत्व पहले की तरह बरकरार रहा। बस अलग-अलग जातियों के बीच नए तरह के समीकरण बनते बिगड़ते रहे। मसलन 1990 से 2005 तक लालू प्रसाद यादव ने पिछड़ी जातियों के बड़े हिस्से और मुसलमानों के समर्थन से सत्ता हासिल की।

एमवाई (मुस्लिम यादव) समीकरण खासा कारगर रहा। साल 2005 में नीतीश और भाजपा ने पिछड़ी जातियों और आंकड़ों के समर्थन से लालू की सियासी बादशाह को खत्म किया। इस चुनाव में भी एनडीए और महागठबंधन एक दूसरे को मात देने में जुटे हैं।

युवा वर्ग निभाएगा निर्णायक भूमिका

इस चुनाव में सियासी दलों के लिए युवा वर्ग पहेली बने हुए हैं कारण इनकी संख्या है राज्य की एक चौथाई आबादी 39 साल से कम आयु 3.6 करोड़ की है। इनमें 29 साल से कम उम्र वाले मतदाताओं की संख्या 1.70 करोड़ है। इन मतदाताओं में सौ से अधिक सीटों का परिणाम बदलने की क्षमता है। राष्ट्रीय जनता दल की अगुवाई वाला महागठबंधन और एनडीए दोनों इस वर्ग को लुभाने के लिए हाथ-पांव मार रहे हैं।

आमतौर पर छोटा भाषण देने वाले बिहार के सीएम लंबा भाषण दे रहे हैं। बड़े बुजुर्गों को युवाओं के सामने अपनी बात विस्तार से रख रहे हैं। उन्हें लालू प्रसाद के कार्यकाल के कथित जंगल राज के बारे में बताने की अपील कर रहे हैं। दूसरी और राजद का चेहरा तेजस्वी इन्हीं युवाओं के बीच बेरोजगारी, पलायन, शिक्षा क्षेत्र की बदहाली का मुद्दा उठा रहे हैं।

जातिगत समीकरण कौन कहां

नब्बे के दशक में लालू को पिछड़ों और मुसलमानों का जबरदस्त समर्थन मिला था। इसकी बदौलत वह डेढ़ दशक तक बिहार की सियासत के सिरमौर रहे। बाद में धीरे-धीरे ओबीसी में शामिल दलों के खिलाफ दूसरी पिछड़ी जातियों के समानांतर ध्रुवीकरण का सिलसिला शुरू हुआ। राज्य की सियासत में नीतीश के उदय के बाद यह पिछड़ी जातियां उनके साथ गोलबंद हुई। भाजपा के साथ गठबंधन के बाद एनडीए से अगली जातियों के अलावा तीन चौथाई पिछड़ी जातियां साथ आई। इसी समीकरण के सहारे नीतीश ने लालू की तर्ज पर डेढ़ दशक तक बिहार की सियासत में अपना दबदबा कायम किया।

कैसे प्रभावित हो सकते हैं नतीजे

नतीजों में फेरबदल तभी संभव है कि जब राजद की अगुवाई वाले महागठबंधन में मुस्लिम यादव के इधर अन्य जातियों का भी समावेश हो। राजद 15 साल से सत्ता से बाहर रहा है। मगर सच्चाई यह है कि राजद के साथ मुस्लिम यादव हमेशा बने रहे। इस चुनाव में मुस्लिम और यादव के इतर दूसरी जातियां भी राजद से जुड़ी तो एनडीए के लिए मुश्किलें खड़ी होंगी। इसके उलट स्थिति में अगर पहले की तरह यादवों के इतर दूसरी पिछड़ी जातियां और अगली जातियां एनडीए के साथ रही तो परिणामों में कोई बदलाव नहीं आएगा।

 

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