Bihar Elections 2020: How Political Game Changed In The Past – बिहार में विधानसभा चुनाव तब और आज, सियासत ने ऐसे ली करवट

नीतीश कुमार-तेजस्वी यादव (फाइल फोटो)
– फोटो : PTI

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बिहार की जटिल राजनीतिक परिस्थितियों के बीच इस विधानसभा चुनाव का ऐसा माहौल बनता दिख रहा है जिसमें मंडल और कमंडल पर बहस थमी सी जान पड़ रही है। दलों की ओर से विकास, भ्रष्टाचार और रोजगार के मुद्दे ज्यादा उछाले जा रहे हैं। अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास पूरी हो जाने और निर्माण कार्य प्रारंभ होने के बाद से बिहार में इसपर कोई बात नहीं हो रही है। वहीं पिछले चुनाव की तरह इस बार जाति का मुद्दा भी गौण है। आपके 15 साल और हमारे 15 साल की चर्चा कर मेरी कमीज साफ और आपकी दागदार बताई जा रही है। 
 
वर्ष 2008 के कोसी त्रासदी के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच आपसी राजनीतिक विरोध का समय साबित हुआ। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विभिन्न मुद्दों पर नरेंद्र मोदी को अपना राजनीतिक विरोधी मानने लगे थे और कई सार्वजानिक मंचों पर उनका विरोध भी कर चुके थे। कोसी त्रासदी के बाद राज्य की नीतीश सरकार ने नरेंद्र मोदी के प्रतिनिधत्व वाली गुजरात सरकार के सहायता स्वरुप भेजे गए पांच करोड़ रुपये को ठुकरा दिया और एक ट्रेन राहत सामग्री लौटा दी थी। एक ही गठबंधन के दो नेताओं के बीच इसी परस्पर विरोधी राजनीतिक माहौल के साथ बिहार वर्ष 2010 का चुनाव हुआ।
     
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पहले पांच साल के कार्यकाल की उपलब्धियों, विकास और सुशासन के नाम पर वर्ष 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा और जदयू का गठबंधन जारी रहा और दोनों दलों ने 102 और 141 सीटों पर अपने- अपने उम्मीदवार उतारे, जिनमें से भाजपा ने 91 और जदयू ने 115 सीटें जीतीं। अंदरूनी खींचातानी के बावजूद एनडीए गठबंधन को जनता ने हाथों-हाथ स्वीकारा और विपक्षी गठबंधन को सीरे से नकार दिया। तब विपक्षी गठबंधन राजद और एलजेपी ने क्रमशः 168 और 75 प्रत्याशी दिये, लेकिन लालू प्रसाद की पार्टी राजद के खाते में 22 और एलजेपी प्रमुख रामविलास पासवान को महज तीन सीटों से ही संतोष करना पड़ा था।

बिहार चुनाव के पूर्व एनडीए घटक के दो शीर्ष नेताओं के बीच की तनातनी से अवसर उठाने और कोसी त्रासदी से निबटने में राज्य सरकार की नाकामी को विपक्ष मुद्दा बनाने में पूरी तरह विफल रहा और उसे करारी हार मिली। सदन में विपक्ष की उपस्थिति न के बराबर रह गई। बिहार चुनाव में एनडीए को मिली शानदार जीत को उस समय बड़ा झटका लगा जब जून, 2013 आयोजित भाजपा संसदीय बोर्ड ने 2014 के लोकसभा चुनाव में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम बतौर प्रधानमंत्री की घोषणा की। धर्मनिरपेक्ष छवि के प्रति अति सजग बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसका विरोध किया और भाजपा से 17 साल पुराने रिश्ते को तोड़ दिया. इसी राजनीतिक स्थिति के बीच लोकसभा चुनाव हुए। बिहार में नतीजा एनडीए के पक्ष में आया। जदयू महज दो सीटों पर सिमट गई। नरेंद्र मोदी को देश और राज्य के लोगों ने नेता मान लिया और पार्टी को 31 संसदीय क्षेत्रों में शानदार जीत मिली। 

पहले से तैयार पृष्ठभूमि के अनुरूप मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव में पार्टी के बेहद खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए मई, 2014 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया और जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी। नीतीश कुमार के इस फैसले का विपक्ष ने भी स्वागत किया। उधर, केंद्र में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और नीतीश कुमार का उदय विपक्ष के बड़े नेता के रूप में होने लगा था। इस बीच पार्टी से अलग लाइन अख्तियार करने की वजह से नीतीश कुमार और मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी में ठन गई। इस विवाद का अंत हुआ जीतनराम मांझी के इस्तीफे से। उन्होंने नई पार्टी बनाई और एनडीए के साथ हो लिए। नीतीश कुमार की फिर से ताजपोशी हुई। 

 

इन जटिल राजनीतिक परिस्थितियों के बीच बिहार में वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव ने दस्तक दी। नए-नए समीकरण गढ़े जाने लगे। नीतीश और लालू गले मिले तो भाजपा के नए मित्र बने पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी और तत्कालीन केंद्रीय राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा। लड़ाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साख की थी इसलिए 2014 के लोकसभा चुनाव की तरह बिहार चुनाव में भी रणनीतिकार लगाए गए। चुनाव में मुकाबला मुख्य रूप से राजद, जदयू और कांग्रेस के महागठबंधन और भाजपा, लोजपा, रालोसपा और हम के बीच था। केंद्र और राज्य सरकार दोनों ओर से घोषणाओं की लड़ी लगाई गई। जदयू और राजद ने 101-101 और कांग्रेस ने 41 प्रत्याशी मैदान में उतारे जिनमें से 70, 81 और 27 सीटों पर उन्हें सफलता मिली। वहीँ, भाजपा 157, लोजपा 42, रालोसपा 23 और हम 21 सीटों पर चुनाव लड़ी और उन्हें क्रमशः 53, लोजपा और रालोसपा को दो- दो और हम को मात्र एक सीट से ही संतोष करना पड़ा। जिस भाजपा ने जुलाई, 2015 विधान परिषद चुनाव में जदयू-राजद को धूल चटाई थी उसे विधानसभा चुनाव में भारी झटका लगा। अमित शाह का मिशन 185 + ध्वस्त हो गया। 

चुनाव में मिली हार से हतोत्साहित भाजपा कार्यकर्ताओं में जान फूंकी उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने। लगभग तीन महीनों तक वे लगातार प्रेस वार्ता कर दस्तावेजी सबूतों के साथ दावा करते कि लालू परिवार ने अवैध रूप से करोड़ों की संपत्ति अर्जित की है। महागठबंधन सरकार और उसके नेताओं की छवि पर प्रश्न खड़ा हुआ। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने सहयोगी दल राजद से इसपर स्पष्टीकरण जानना चाहा। यहीं से जदयू और राजद के रिश्तों में दरार आनी शुरू हुई जिसपर 2017 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इस्तीफे से विराम लगा। भाजपा ने बिना शर्त जदयू का समर्थन कर दिया और प्रदेश में भाजपा-जदयू की सरकार बन गई और विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी राजद मुख्य विपक्षी दल बन गया। 

 

इन्हीं परिस्थितियों के बीच बिहार नए विधानसभा गठन को लेकर फिर से चुनाव में है, लेकिन इस बार एनडीए के स्वाभाविक विरोधी राजद- कांग्रेस के अलावा चुनाव पूर्व एनडीए से अलग हुए लोजपा से भी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। वहीँ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से तल्खी रखने वाले पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी फिर से एनडीए के साथ हैं तो उपेंद्र कुशवाहा ने उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और एमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी के साथ मिलकर नया गठबंधन बनाया है। अब देखना यह है कि राज्य में बदले समीकरण का वर्ष 2020 में आगाज कैसे होता है, जनता किसे हाथों-हाथ लेती है और सत्ता की चाभी सौंपती है।                    

            

बिहार की जटिल राजनीतिक परिस्थितियों के बीच इस विधानसभा चुनाव का ऐसा माहौल बनता दिख रहा है जिसमें मंडल और कमंडल पर बहस थमी सी जान पड़ रही है। दलों की ओर से विकास, भ्रष्टाचार और रोजगार के मुद्दे ज्यादा उछाले जा रहे हैं। अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास पूरी हो जाने और निर्माण कार्य प्रारंभ होने के बाद से बिहार में इसपर कोई बात नहीं हो रही है। वहीं पिछले चुनाव की तरह इस बार जाति का मुद्दा भी गौण है। आपके 15 साल और हमारे 15 साल की चर्चा कर मेरी कमीज साफ और आपकी दागदार बताई जा रही है। 

 

वर्ष 2008 के कोसी त्रासदी के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच आपसी राजनीतिक विरोध का समय साबित हुआ। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विभिन्न मुद्दों पर नरेंद्र मोदी को अपना राजनीतिक विरोधी मानने लगे थे और कई सार्वजानिक मंचों पर उनका विरोध भी कर चुके थे। कोसी त्रासदी के बाद राज्य की नीतीश सरकार ने नरेंद्र मोदी के प्रतिनिधत्व वाली गुजरात सरकार के सहायता स्वरुप भेजे गए पांच करोड़ रुपये को ठुकरा दिया और एक ट्रेन राहत सामग्री लौटा दी थी। एक ही गठबंधन के दो नेताओं के बीच इसी परस्पर विरोधी राजनीतिक माहौल के साथ बिहार वर्ष 2010 का चुनाव हुआ।

     
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पहले पांच साल के कार्यकाल की उपलब्धियों, विकास और सुशासन के नाम पर वर्ष 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा और जदयू का गठबंधन जारी रहा और दोनों दलों ने 102 और 141 सीटों पर अपने- अपने उम्मीदवार उतारे, जिनमें से भाजपा ने 91 और जदयू ने 115 सीटें जीतीं। अंदरूनी खींचातानी के बावजूद एनडीए गठबंधन को जनता ने हाथों-हाथ स्वीकारा और विपक्षी गठबंधन को सीरे से नकार दिया। तब विपक्षी गठबंधन राजद और एलजेपी ने क्रमशः 168 और 75 प्रत्याशी दिये, लेकिन लालू प्रसाद की पार्टी राजद के खाते में 22 और एलजेपी प्रमुख रामविलास पासवान को महज तीन सीटों से ही संतोष करना पड़ा था।

बिहार चुनाव के पूर्व एनडीए घटक के दो शीर्ष नेताओं के बीच की तनातनी से अवसर उठाने और कोसी त्रासदी से निबटने में राज्य सरकार की नाकामी को विपक्ष मुद्दा बनाने में पूरी तरह विफल रहा और उसे करारी हार मिली। सदन में विपक्ष की उपस्थिति न के बराबर रह गई। बिहार चुनाव में एनडीए को मिली शानदार जीत को उस समय बड़ा झटका लगा जब जून, 2013 आयोजित भाजपा संसदीय बोर्ड ने 2014 के लोकसभा चुनाव में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम बतौर प्रधानमंत्री की घोषणा की। धर्मनिरपेक्ष छवि के प्रति अति सजग बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसका विरोध किया और भाजपा से 17 साल पुराने रिश्ते को तोड़ दिया. इसी राजनीतिक स्थिति के बीच लोकसभा चुनाव हुए। बिहार में नतीजा एनडीए के पक्ष में आया। जदयू महज दो सीटों पर सिमट गई। नरेंद्र मोदी को देश और राज्य के लोगों ने नेता मान लिया और पार्टी को 31 संसदीय क्षेत्रों में शानदार जीत मिली। 

पहले से तैयार पृष्ठभूमि के अनुरूप मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव में पार्टी के बेहद खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए मई, 2014 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया और जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी। नीतीश कुमार के इस फैसले का विपक्ष ने भी स्वागत किया। उधर, केंद्र में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और नीतीश कुमार का उदय विपक्ष के बड़े नेता के रूप में होने लगा था। इस बीच पार्टी से अलग लाइन अख्तियार करने की वजह से नीतीश कुमार और मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी में ठन गई। इस विवाद का अंत हुआ जीतनराम मांझी के इस्तीफे से। उन्होंने नई पार्टी बनाई और एनडीए के साथ हो लिए। नीतीश कुमार की फिर से ताजपोशी हुई। 

 

इन जटिल राजनीतिक परिस्थितियों के बीच बिहार में वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव ने दस्तक दी। नए-नए समीकरण गढ़े जाने लगे। नीतीश और लालू गले मिले तो भाजपा के नए मित्र बने पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी और तत्कालीन केंद्रीय राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा। लड़ाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साख की थी इसलिए 2014 के लोकसभा चुनाव की तरह बिहार चुनाव में भी रणनीतिकार लगाए गए। चुनाव में मुकाबला मुख्य रूप से राजद, जदयू और कांग्रेस के महागठबंधन और भाजपा, लोजपा, रालोसपा और हम के बीच था। केंद्र और राज्य सरकार दोनों ओर से घोषणाओं की लड़ी लगाई गई। जदयू और राजद ने 101-101 और कांग्रेस ने 41 प्रत्याशी मैदान में उतारे जिनमें से 70, 81 और 27 सीटों पर उन्हें सफलता मिली। वहीँ, भाजपा 157, लोजपा 42, रालोसपा 23 और हम 21 सीटों पर चुनाव लड़ी और उन्हें क्रमशः 53, लोजपा और रालोसपा को दो- दो और हम को मात्र एक सीट से ही संतोष करना पड़ा। जिस भाजपा ने जुलाई, 2015 विधान परिषद चुनाव में जदयू-राजद को धूल चटाई थी उसे विधानसभा चुनाव में भारी झटका लगा। अमित शाह का मिशन 185 + ध्वस्त हो गया। 

चुनाव में मिली हार से हतोत्साहित भाजपा कार्यकर्ताओं में जान फूंकी उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने। लगभग तीन महीनों तक वे लगातार प्रेस वार्ता कर दस्तावेजी सबूतों के साथ दावा करते कि लालू परिवार ने अवैध रूप से करोड़ों की संपत्ति अर्जित की है। महागठबंधन सरकार और उसके नेताओं की छवि पर प्रश्न खड़ा हुआ। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने सहयोगी दल राजद से इसपर स्पष्टीकरण जानना चाहा। यहीं से जदयू और राजद के रिश्तों में दरार आनी शुरू हुई जिसपर 2017 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इस्तीफे से विराम लगा। भाजपा ने बिना शर्त जदयू का समर्थन कर दिया और प्रदेश में भाजपा-जदयू की सरकार बन गई और विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी राजद मुख्य विपक्षी दल बन गया। 

 

इन्हीं परिस्थितियों के बीच बिहार नए विधानसभा गठन को लेकर फिर से चुनाव में है, लेकिन इस बार एनडीए के स्वाभाविक विरोधी राजद- कांग्रेस के अलावा चुनाव पूर्व एनडीए से अलग हुए लोजपा से भी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। वहीँ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से तल्खी रखने वाले पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी फिर से एनडीए के साथ हैं तो उपेंद्र कुशवाहा ने उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और एमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी के साथ मिलकर नया गठबंधन बनाया है। अब देखना यह है कि राज्य में बदले समीकरण का वर्ष 2020 में आगाज कैसे होता है, जनता किसे हाथों-हाथ लेती है और सत्ता की चाभी सौंपती है।                    

            

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