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- Indian Banks Struggling With Bad Loans Pose A Risk To The Country’s Economic Development
मुंबईएक घंटा पहले
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आरबीआई के तीन पूर्व गवर्नर ने आनेवाली एक पुस्तक में देश के बैंकिंग सेक्टर को लेकर राय व्यक्त की है। इनका मानना है कि आगे बैंकिंग सेक्टर के लिए और ज्यादा जोखिम है। सरकार को बैंंकों को पैसा देना चाहिए
- देश में नोटबंदी ने बैंकिंग सेक्टर की समस्याओं को और ज्यादा बढ़ा दिया है। इससे फाइनेंशियल सिस्टम में खतरनाक असंतुलन पैदा हो गया
- 2018 के मध्य में एक बड़ी और महत्वपूर्ण एनबीएफसी के डिफॉल्ट ने बैंकिंग सेक्टर की समस्या को और मजबूती दे दी
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के तीन पूर्व गवर्नर ने कहा है कि खराब लोन (NPA) से जूझ रहे भारतीय बैंकों ने आर्थिक विकास के लिए जोखिम पैदा कर दिया है। इसका असर तब तक रहेगा, जब तक सरकार इन्हें पैसा नहीं देती है। यह राय आनेवाली एक पुस्तक में है। इस पुस्तक में बैंकिंग सेक्टर पर इन गवर्नर की राय है।
प्रधानमंत्री का वादा है, पर मदद का संसाधन नहीं है
पैंडेमोनियम : द ग्रेट इंडियन ट्रेजेडी नामक पुस्तक में इन गवर्नर का यह मानना है कि समस्या यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महामारी से लड़ने के लिए पैसा देने का वादा तो किया है पर बैंकों की मदद करने के लिए बहुत कम संसाधन हैं। इसका कारण सरकार के कम हो रहे रेवेन्यू को देखा जाता है। इससे राजकोषीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट) बजट से दोगुना हो जाता है। इस किताब में कहा गया है, “2008 में और 2013 के बीच भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर रहे डी सुब्बाराव ने कहा कि खराब ऋण बड़ी और वास्तविक समस्या है। “लेकिन, जो भी बड़ा और वास्तविक है वह सरकार की वित्तीय बाधा है।”
20 हजार करोड़ की रकम तय की है
विश्लेषकों ने कहा कि भारत ने इस साल 13 अरब डॉलर के रिकैपिटलाइजेशन में से 20 हजार करोड़ रुपए की रकम निर्धारित की है। पिछले तीन वर्षों में सरकार ने सरकारी बैंकों में 2.6 लाख करोड़ रुपए डाले हैं, लेकिन उनकी परेशानी फिर भी बढ़ी है। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार एनपीए मार्च तक बढ़ कर 12.5% तक हो सकता है। यह पिछले दो सालों में सबसे ज्यादा होगा। सरकारी बैंक विशेष रूप से कमजोर हैं और चूंकि प्रमुख उभरते बाजारों में बड़े पैमाने पर पूंजी घट रही है, इसलिए इनके समक्ष आगे और बड़ी चुनौतियां हैं।
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फिस्कल डेफिसिट भी समस्या है
सितंबर 2003 से 2008 तक आरबीआई गवर्नर रहे वाई वी रेड्डी ने कहा कि एक तरह से राजकोषीय समस्या, वास्तविक अर्थव्यवस्था में बैंकिंग और फिर वित्तीय क्षेत्र की समस्या पर एक्शन देती है। संक्षेप में कहें तो एनपीए न केवल एक समस्या है बल्कि अन्य समस्याओं का कारण भी है। महामारी से पहले भी, भारत का वित्तीय क्षेत्र कठिन समय से गुजर रहा था। कुछ बैंक या एनबीएफसी को तब संभलने में मुश्किल आई, जब अचानक नियमों को कड़क कर दिया गया।
नियमों में बदलाव ने भी बढ़ाई समस्या
इन नियमों में अदालतों ने कोयला-खनन लाइसेंस रद्द कर दिया। टेलीकॉम शुल्क के भुगतान का आदेश आ गया। प्राकृतिक गैस की आपूर्ति में गिरावट आ गई। कमोडिटी की कीमतों में गिरावट और ब्याज दरों में वृद्धि ने भी कर्ज चुकाने की उनकी क्षमता को खत्म कर दिया। 2016 में मोदी के नोटबंदी के निर्णय ने देश की वित्तीय सिस्टम में खतरनाक असंतुलन पैदा कर दिया। 2018 के मध्य में एक बड़े और महत्वपूर्ण शैडो बैंक ने इसे और मजबूती दे दी।
1992-97 के दौरान आरबीआई का नेतृत्व करने वाले सी रंगराजन ने कहा कि वास्तविक क्षेत्र की समस्याओं की निरंतरता ने हाल के दौर में, जैसे कि नोटबंदी ने बैंकिंग की विकट स्थिति को बढ़ा दिया है। यह एक बड़ा आर्थिक संकट रहा है।