Ayodhya Ram Mandir Bhumi Pujan News In Hindi: Inside Story Of How To Planned Ram Mandir Movement – Ram Mandir News: सांस्कृतिक चेतना का शंखनाद, ऐसे तैयार हुई मुक्ति की पृष्ठभूमि

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श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन जब शुरू हुआ था, तब न शक्ति थी और न सामर्थ्य। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, जनसंघ सहित अन्य कई संगठन अलग-अलग नामों से समाज के विभिन्न-विभिन्न वर्गों में सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना फैलाने की कोशिश जरूर कर रहे थे। पर, यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि यह कोशिश भारतीय सांस्कृतिक चेतना के आधार पर अपने आराध्य के स्थान की मुक्ति के दुनिया के सबसे बड़े सफल आंदोलन का कारण बनेगी। इसका फल न सिर्फ राष्ट्रीय पुनर्जागरण के रूप में, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक फलक पर भी प्रभाव डालने के बड़े कारक के रूप में सामने आएगा।

सांस्कृतिक चेतना का शंखनाद
कानपुर में 1984 में संघ का शारीरिक शिक्षा वर्ग लगा था। वर्ग हो जाने के बाद प्रचारक के रूप में काम करने वालों के बीच मैं भी बैठा था। तब तक अलग-अलग तरीके से अयोध्या, मथुरा और काशी के मंदिरों को तोड़कर उन स्थानों को मस्जिद का रूप देने की घटनाएं उद्वेलित करने लगी थीं। मैं इन मुद्दों पर बोलता भी रहता था। संकल्प के अतिरिक्त अपने पास कुछ नहीं था। एक कुर्ता-धोती और कंधे पर झोला, जो हमारा कार्यालय भी था और कोष भी।

इसके अलावा यदि पास में था तो सिर्फ आचार्य तुलसीदास की यह पंक्तियां, प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं, जलधि लांघि गए अचरज नाहीं। तमाम उतार-चढ़ाव के बाद उस विश्वास की परिणति आखिरकार 5 अगस्त के रूप में सामने आना सुनिश्चित हो गया।

( जैसा कि विनय कटियार ने अखिलेश वाजपेयी  को बताया )

प्रचारकों की औपचारिक बैठक के बाद वरिष्ठ प्रचारक सरसंघचालक बाला साहब देवरस, प्रो. राजेन्द्र सिंह रज्जू भैया, बालासाहब भाऊराव देवरस, अशोक सिंहल, मोरोपंत पिंगले, हो.वि. शेषाद्रि जैसे लोग अयोध्या को लेकर चर्चा करने लगे। मैंने अयोध्या के साथ मथुरा व काशी की मुक्ति को लेकर भी चर्चा की। पर, इन वरिष्ठ जनों की राय बनी कि काशी और मथुरा में हमारे मंदिर बने हुए हैं। इसलिए पहले अयोध्या को लेते हैं। चूंकि मुझे ही काम करना था तो मैं सबको प्रणाम करते हुए बाहर निकला।

बाहर प्रो. रज्जू भैया से कहा, मैं तो अयोध्या को बहुत जानता नहीं हूं, तो कैसे काम करना है। रज्जू भैया ने कहा, कुछ नहीं सीधे-सीधे मुक्ति की बात करो। मैं अयोध्या आया, महंत रामचंद्र परमहंस से मिला। वे चूंकि इस मामले में वादी थे। बात की तो नाराजगी से बोले, बच्चा मैं इतने दिन से लड़ाई लड़ रहा हूं, अभी तक तो कुछ हुआ नहीं। तू क्या कर लेगा।

हम लोग लौट आए। अगले दिन फिर गए तो उन्होंने फिर नाराजगी जताई। मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा, आप इतिहास बताइए, सब कुछ होगा। तब उन्होंने कहा, हमारी उम्र तो है नहीं। तुम लोगों को करना है तो करो। हमारा समर्थन और आशीर्वाद है। इसके बाद मैं गोरखपुर जाकर महंत अवेद्यनाथ से मिला। परमहंसजी के हां कहने की बात बताई तो बोले, ठीक है शुरू करो। मेरा पूरा सहयोग है।

धीरे-धीरे बनने लगा आंदोलन का माहौल
शुरू में बैठकों में बमुश्किल 20-30 लोग आते, पर जरूरत थी किसी ऐसे शख्स की जो लोगों को प्रेरित कर सके। फिर मैं अशोक सिंहल जी से मिला। उन्होंने ही कानपुर में संभाग प्रचारक रहते मुझे प्रचारक बनाया था। सिंहल जी का दौरा शुरू हो गया। सवाल पैदा हुआ मंदिर पर चल रहे कार्यक्रमों को एकजुट करके राममंदिर पर बड़े जनजागरण का। सिंहल जी के बुलावे पर मैं दिल्ली गया। वहां उन्होंने पश्चिम से दिनेश त्यागी को बुला लिया था। वहीं पर पूर्व मंत्री दाऊदयाल खन्ना की हम लोगों से मुलाकात कराई और आगे के आंदोलन की रणनीति बनी।

सिंहल जी और खन्ना जी के एक साथ दौरे तय हुए। राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति बनी। लखनऊ के बेगम हजरत महल पार्क में सभा हुई। इसमें मैंने बिना किसी पूर्व घोषणा के तमाम नवयुवकों के हाथ में बजरंग दल की पट्टियां बंधवा दी थी। इसके पहले बजरंग दल को कोई नहीं जानता था। युवाओं को जोड़ने की इस कोशिश को सभी ने सराहा। इसी सभा में प्रदेश के पूर्व डीजीपी श्रीश चंद्र दीक्षित भी विहिप में आ गए। फिर महिलाओं के लिए मैंने दुर्गावाहिनी की स्थापना की।

अशोक सिंहल ने संभाला नेतृत्व
आंदोलन का विस्तार हो चुका था और समर्थन भी खूब मिल रहा था। सिंहल जी ने पूरे आंदोलन की कमान संभाली। महंत परमहंस और महंत अवेद्यनाथ सहित तमाम संत-महात्माओं का आशीर्वाद व सहयोग मिलना शुरू हो गया। वरिष्ठ प्रचारक रज्जू भैया और भाऊराव देवरस की व्यक्तिगत रुचि  तथा संघ के समर्थन से संसाधन की समस्याएं दूर होने लगीं। जनजागरण के तमाम कार्यक्रम करते हुए शिला पूजन का कार्यक्रम तय किया गया। नारा दिया गया-आगे बढ़ो जोर से बोलो, जन्मभूमि का ताला खोलो। शिलापूजन के साथ ही एक और नारा दिया गया, अयोध्या तो झांकी है मथुरा-काशी बाकी है। वीर बहादुर मुख्यमंत्री थे। महंत अवेद्यनाथ ने कई बार उनसे बात की, लेकिन कुछ बात नहीं बनीं। अंतत: न्यायालय के आदेश से ताला खुलते हुए आंदोलन आगे बढ़ा और शिलान्यास भी हो गया।

मुलायम सिंह माफी मांगें
कारसेवा की घोषणा हुई। तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोलियां चलवा दीं। राममंदिर आंदोलन के पांच सदी तक चले संघर्ष में लगभग 3.50 लाख लोगों के प्राण गए। आज भी हमारे, आडवाणी जी, जोशी जी, कल्याण सिंह सहित तमाम लोगों पर मुकदमे चल रहे हैं। बजरंग दल पर प्रतिबंध लगा। न्यायाधीश ने बजरंग दल का कार्यालय व कोष पूछा तो मैंने कहा कि मेरा झोला। इसी में सब है। न्यायाधीश मुस्कुराए और अंतत: बजरंग दल प्रतिबंध मुक्त हो गया। इतने बलिदानों के बाद अब रामजी की कृपा से राम मंदिर बनने जा रहा है। पर, मेरा एक आग्रह मुलायम सिंह यादव से जरूर है कि वह भगवान राम के दरबार में आकर माफी मांगने की घोषणा करें, तभी उनका प्रायश्चित होगा। कारण, अब यह सिद्ध हो गया है कि कारसेवक जिस स्थान पर कारसेवा करने जा रहे थे, वह मंदिर ही था।

( जैसा कि विनय कटियार  ने अखिलेश वाजपेयी  को बताया )

श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन जब शुरू हुआ था, तब न शक्ति थी और न सामर्थ्य। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, जनसंघ सहित अन्य कई संगठन अलग-अलग नामों से समाज के विभिन्न-विभिन्न वर्गों में सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना फैलाने की कोशिश जरूर कर रहे थे। पर, यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि यह कोशिश भारतीय सांस्कृतिक चेतना के आधार पर अपने आराध्य के स्थान की मुक्ति के दुनिया के सबसे बड़े सफल आंदोलन का कारण बनेगी। इसका फल न सिर्फ राष्ट्रीय पुनर्जागरण के रूप में, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक फलक पर भी प्रभाव डालने के बड़े कारक के रूप में सामने आएगा।

सांस्कृतिक चेतना का शंखनाद

कानपुर में 1984 में संघ का शारीरिक शिक्षा वर्ग लगा था। वर्ग हो जाने के बाद प्रचारक के रूप में काम करने वालों के बीच मैं भी बैठा था। तब तक अलग-अलग तरीके से अयोध्या, मथुरा और काशी के मंदिरों को तोड़कर उन स्थानों को मस्जिद का रूप देने की घटनाएं उद्वेलित करने लगी थीं। मैं इन मुद्दों पर बोलता भी रहता था। संकल्प के अतिरिक्त अपने पास कुछ नहीं था। एक कुर्ता-धोती और कंधे पर झोला, जो हमारा कार्यालय भी था और कोष भी।

इसके अलावा यदि पास में था तो सिर्फ आचार्य तुलसीदास की यह पंक्तियां, प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं, जलधि लांघि गए अचरज नाहीं। तमाम उतार-चढ़ाव के बाद उस विश्वास की परिणति आखिरकार 5 अगस्त के रूप में सामने आना सुनिश्चित हो गया।

( जैसा कि विनय कटियार ने अखिलेश वाजपेयी  को बताया )


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