Bihar Floods Why Is A Floating Society Sinking? – बिहार बाढ़: तैरने वाला समाज आखिर डूब क्यों रहा है?

बिहार में गंडक, बागमती, लखनदेई, कमला और कोसी समेत आधा दर्जन से भी ज्यादा नदियों में आई बाढ़ से तक़रीबन 84 लाख लोग प्रभावित हैं
राज्य के 16 प्रभावित जिलों के बीसियों गाँव बाढ़ के पानी में डूबे हुए हैं, सैकड़ों बेघर लोग तटबंधों से लेकर सड़कों तक पर रहने को मजूबर हो गए हैं और हजारों एकड़ में फैले उपजाऊ खेत पूरी तरह जलसमाधि ले चुके हैं।
लेकिन बरसात के महीनों में उत्तर बिहार में बाढ़ का आना नई बात नहीं है।
लेकिन सवाल यह उठता है कि यहां हर साल बाढ़ आती क्यों है? और क्या बिहार में बाढ़ से होने वाले जान-माल के नुक़सान को रोकने का कोई दीर्घकालिक हल निकालना सम्भव है?
लेकिन इस सवाल का जवाब, एक दूसरे जरूरी सवाल से जुड़ता है- सदियों से बाढ़ प्रभावित समाज के तौर पर जी रहे उत्तर बिहार के लोगों के लिए यहां की नदियों में आने वाला उफान क्या हमेशा से समस्या रहा है?
क्या बिहार में आज रह रहे भारतीय नागरिकों के पुरखे भी हर साल इसी तरह बाढ़ की त्रासदी से तबाह होते थे?

 

‘ बाढ़ का कोई डर नहीं, नदी दर्शन देकर चली जाएंगी 

इन अहम सवालों के जवाब के सिलसिले की शुरुआत करती हूँ भारत के प्रख्यात पर्यावरणविद और लेखक अनुपम मिश्र की किताब ‘साफ़ माथे का समाज’ में बिहार-बाढ़ पर शामिल निबंध ‘तैरने वाला समाज डूब रहा है’ में दर्ज एक छोटे से किस्से से।

ढाई हजार साल पहले बुद्ध और उत्तर बिहार के एक ग्वाले के बीच हुए संवाद का उदाहरण देते हुए अनुपम लिखते हैं, “काली घटाएं छाई हुई हैं। ग्वाला बुद्ध से कह रहा है कि उसने अपना छप्पर कस लिया है, गाय को मजबूती से खूँटे से बांध दिया है, फसल काट ली है। अब बाढ़ का कोई डर नहीं बचा। आराम से, चाहे जितना पानी बरसे। नदी देवी दर्शन देकर चली जाएंगी.”

इसके बाद बुद्ध ग्वाले से कह रहे हैं कि “मैंने तृष्णा की नावों को खोल दिया है, अब मुझे बाढ़ का कोई डर नहीं. नदी किनारे युगपुरुष ग्वाले की झोपड़ी में रात बिताएंगे.”

उस नदी किनारे रात में कभी भी बाढ़ आ सकती थी, लेकिन दोनों निश्चिंत थे। क्या आज ऐसा संवाद बाढ़ के ठीक पहले संभव है?

इस दृश्य में बाढ़ को लेकर दर्ज निश्चिंतता आज राज्य में बाढ़ की ही वजह से फैली बर्बादी और तबाही के डरवाने रूपक में तब्दील हो चुकी है।

लेकिन इसके साथ ही यह दृश्य दूसरी महत्वपूर्ण बात यह बताता है कि बिहार का समाज हमेशा से बाढ़ में ‘तैरना’ जानता था।

फिर सवाल उठता है कि ‘तैरने वाला’ यह समाज आखिर आज ‘डूबने’ की कगार तक कैसे पहुँचा? और क्या बिहार को बाढ़ से हमेशा के लिए मुक्ति दिलाना सम्भव है?

‘ बाढ़ तो आएगी लेकिन बेहतर बचाव सम्भव 

बिहार में बाढ़ की समस्या पर तीन दशकों से शोध कर रहे वरिष्ठ इंजीनियर, लेखक और ‘बाढ़ मुक्त अभियान’ के संस्थापक दिनेश मिश्रा बीबीसी से कहते हैं कि उत्तर बिहार में बाढ़ के आने को यूं तो रोका नहीं जा सकता, लेकिन इसके प्रभाव को कम जरूर किया जा सकता है।

वो कहते हैं “हिमालय की तराई में बसे होने की वजह से उत्तर बिहार की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि यहां बाढ़ को टाला नहीं जा सकता। हां, बेहतर प्रबंधन से आम जनजीवन पर पड़ने वाले बाढ़ के प्रभावों को कम जरूर किया जा सकता है।”

दिनेश कहते हैं कि पानी के साथ बड़े-छोटे पत्थर, रेत और बड़ी मात्रा में तलछट या गाद भी नीचे आती है।

वो कहते हैं, “ये सारी नदियां हिमालय से निकलकर भारतीय-नेपाल प्लेन पर मौजूद 22 सेंटीमीटर के स्लोप से होती हुई तेज गति से नीचे आती हैं। गंगा के मैदानी इलाकों में यह ढलान मात्र 7 सेंटीमीटर की मापी गई है। इसलिए बरसात के समय ऊपर की तरफ तो नदी में गति ज्यादा रहती है लेकिन नीचे आते-आते कम होने लगती है।”

“हमारे यहां रेत के साथ-साथ जो गाद आती है, वह उत्तर बिहार के खेतों को उपजाऊ बनाती है। यहां तक कि 2008 में जब कोसहा का तटबंध टूटा था, तब जिन इलाकों में पानी गया वहां समस्या हुई लेकिन जहां गाद पहुंची वहां रबी की फसल बहुत अच्छी हुई।”

‘बाढ़’ उत्तर बिहार के आम लोगों के लिए जरूरी भी है
‘इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ के साथ-साथ देश विदेश की कई प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में बिहार बाढ़ पर दर्जनों लेखों के साथ-साथ इस विषय पर कई किताबें लिखने वाले दिनेश मिश्रा का मानना है कि बिहार में बाढ़ को रोकने का प्रयास वहां लोगों के जीवन में बड़ी मुश्किलें पैदा कर सकता है।
वो कहते हैं, “अगर किसी बाढ़ पीड़ित से कोई राजनेता यह वादा करे कि वह बाढ़ को ‘पूरी तरह’ खत्म कर देगा तो तात्कालिक तौर पर वह और बाकी जनता बहुत खुश हो सकती है।लेकिन इस तरह के सभी वादे सिर्फ राजनेताओं की व्यक्तिगत राजनीति को चमकाने के लिए किए जाते हैं।”

“क्योंकि असल में हिमालय से आती नदियों के पानी को रोकना सम्भव ही नहीं है। और अगर आप बांध बना भी दें तो नीचे तराई के लोग कैसे जिंदा रहेंगे? खेती और जीवन के लिए पानी कहां से आएगा? एक ऐसे इलाके की जमीन बंजर हो जाने का खतरा रहेगा जो पूरी तरह कृषि पर निर्भर है।”

बाढ़ में कैसे रहते थे हमारे पूर्वज ?
उत्तरी बिहार में बाढ़ का शुरुआती इतिहास हिमालय पर्वत शृंखला के नए या ‘शिशु पर्वत शृंखला’ होने से भी सीधे तौर पर जुड़ा है।
दक्षिण एशिया का सबसे युवा पर्वत होने की वजह से हिमालय की मिट्टी कमोबेश कच्ची और आसानी से दरकने वाली रही है। दिनेश कहते हैं, “इसलिए, जब बीती शताब्दियों में उत्तर बिहार में सालाना बाढ़ आती थी तो नदियां अपने साथ हिमालय की उर्वर मिट्टी भी लातीं। नतीजतन बाढ़ के 10-15 दिनों की परेशानी झेलने के बाद यहां के खेत अच्छे उपजाऊ हो जाते, जलस्तर अच्छा रहता और बसाहटों के तालाब आदि सब भर जाते।”

“तब कंक्रीट निर्माण से हमने नदियों का रास्ता नहीं रोका था, इसलिए बाढ़ का पानी भी तुरंत उतर जाता. इसलिए यहां की पुरानी संस्कृति में इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि लोग नदियों की पूजा करते रहे हैं और वे बाढ़ का भी इंतज़ार करते थे।”
लेकिन धीरे-धीरे बढ़े शहरीकरण के बाद नदियों का रास्ता रुकने लगा। फिर दोनों तरफ तटबंधों से सभी नदियों को बांध दिया गया और बाढ़ का मौजूदा विकराल रूप सामने आने लगा।

समाधान की जगह समस्या बने तटबंध

आंकड़े बताते हैं कि आजादी के बाद से बिहार में बाढ़ से होने वाली सालाना तबाही हर साल बढ़ती रही है।

उत्तर बिहार का लगभग 73 प्रतिशत हिस्सा बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित है। साथ ही उत्तर बिहार की सभी नदियों को दोनों ओर तटबंधों से बांधने की वजह से बाढ़ की समस्या कम होने की बजाय बढ़ी है।

दिनेश कहते हैं, “1952 में बिहार की मात्र 25 लाख हेक्टेयर ज़मीन बाढ़ ग्रस्त थी। आज यह आंकड़ा बढ़कर 68.8 लाख हेक्टेयर हो गया है, जो लगभग 3 गुना है। ये हालात तब हैं जब आजादी के वक़्त बिहार की नदियों पर कुल 160 किलोमीटर की दूरी तक तटबंध बने थे और आज की तारीख में कुल 3800 किलोमीटर तक लम्बे तटबंध बनाकर राज्य की नदियों को दोनों तरफ से बांध दिया गया है।”

अगर तटबंध ही समाधान होता तो इतने लंबे तटबंध बनाने के बाद बाढ़ हमेशा के लिए रुक जानी चाहिए थी लेकिन बाढ़ प्रभावित क्षेत्र तो लगातार बढ़ता ही रहा है। इसका साफ मतलब है कि यह पूरी कवायद नुकसान भरी रही है।”

जानकारों का मानना है कि तटबंध बनाते हुए सरकार ने जलनिकासी की व्यवस्था के साथ-साथ बरसात के दौरान नदी में भरने वाली गाद की समस्या पर ध्यान नहीं दिया।
दिनेश कहते हैं, “जब तटबंधों से नदी को दोनों ओर से बांध दिया जाता है तो पानी बाहर नहीं निकल पाता। जैसे-जैसे बरसात और पानी की गति बढ़ेगी, नदी के तल में गाद और रेत का स्तर भी बढ़ेगा और तटबंध टूटेगा।”

“कागज पर गंडक का तटबंध सात लाख क्यूसेक पानी का प्रवाह सहने के लिए काफी है लेकिन जमीन पर चार लाख क्यूसेक पानी में ही तटबंध की हालत कमज़ोर होने लगती है। फिर यदि तटबंध टूटता है तो बाहर के गाँवों में पानी भर जाता है और फिर प्लग-इन का नया खेल शुरू होता है।”

नदी के पेट में रेत की गाँठ

जानेमाने पर्यावरणविद, गंगा शोध केंद्र के संस्थापक और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय आईआईटी में सिविल इंजीनियरिंग के प्रोफ़ेसर रह चुके यूके चौधरी बाढ़ को ‘नदी के पेट में बन रही रेत के गोले’ से जोड़ते हैं। बीबीसी से बातचीत में वह कहते हैं, “बाढ़ का अर्थ है उल्टी होना. यदि आपने जरूरत से ज्यादा खा लिया हो या आपका पेट ताकत के साथ बांध दिया गया हो तो आप उल्टी कर सकते हैं।”

“इसी तरह से जब नदी को तटबंधों में बांध दिया जाता है तो उसके पेट में रेत और गाद का स्तर लगातार बढ़ता रहता है। बिहार में बाढ़ इसलिए आ रही है क्योंकि नदी के पेट पर कोई ध्यान नहीं दे रहा।”

शहरीकरण और अनियंत्रित निर्माण से नदियों को हो रहे नुकसान का जिक्र करते हुए वह कहते हैं, “हालात यह हैं कि नदी के पेट में निर्माण कार्य चलते रहते हैं। यहां तक कि सूखे मौसम में लोग फ्लडप्लेन में और धारा के बीच तक में घर बना रहे हैं। दरभंगा जिले में पड़ने वाले मेरे अपने गांव में लोगों ने कमला नदी के क्षेत्र में निर्माण करके घेर लिया है।”

“निकासी की कोई व्यवस्था दुरुस्त नहीं है और ऊपर से तटबंध नदी को बांधे रखे हैं। ऐसे में नदी का पेट साफ कैसे रहेगा? और जब नीचे रेत और गाद जमा होगी तो ऊपर बाढ़ आएगी ही! लेकिन फिर साल भर बाढ़ से निपटने की तैयारियों पर ध्यान नहीं दिया जाता और अंत में लोग सड़कों पर टेंटों में रहने को मजबूर हो जाते हैं।”

सम्भावित उपाय: फ्लड मिटिगेशन का सिद्धांत

यूके चौधरी ने ‘फ्लड मिटिगेशन’ के सिद्धांत के जरिए बिहार में बाढ़ की समस्या का समाधान सुझाने का प्रयास किया है. यहां ‘फ्लड मिटिगेशन’ का अर्थ बाढ़ के दुष्प्रभाव को कम करना है।

चौधरी कहते हैं, “तटबंध बनने की वजह से हर साल नदी के पेट में रेत और गाद का स्तर कितना बढ़ता है- इसका कोई वैज्ञानिक विश्लेषण हमने नहीं किया है। यह किया जाना चाहिए। ‘फ्लड मिटिगेशन’ के सिद्धांत के अंतर्गत मैंने सुझाया था कि हर साल बाढ़ से पहले नदी किनारे जहां-जहां रेत की ऊँचाई ज्यादा है, वहां-वहां यदि उसे काम कर दिया जाए तो बरसात के दौरान कुछ खास हिस्सों में नदी में बहुत ज्यादा पानी नहीं भरेगा।”

“जहां जहां रेत के कई-कई फीट ऊँचे जमाव हैं, वहां-वहां से समय रहते सरकार या तो रेत हटवा दे या उसकी बिक्री शुरू कर दे। रेत कम रहेगी तो कटाव कम होगा और नदी का पेट साफ रह पाएगा। लेकिन यह सब सोचने-करने की न तो प्रशासन को सुध है और न ही लोगों में जागरूकता।”

पुल और बांधों से भी सिर्फ बढ़ रही है समस्या

बिहार बाढ़ पर काम कर रहे वरिष्ठ पर्यावरणविदों और नदी विशेषज्ञों का कहना है कि उत्तर बिहार में नदियों पर बन रहे पुल और प्रस्तावित बांध भी समस्या को कम करने के बजाय बढ़ाएंगे ही।

दिनेश मिश्रा कहते हैं, “कोसी पर बांध बनाए जाने का प्रस्ताव सबसे पहले 1947 में रखा गया था. तब से अब तक भारत और नेपाल सरकार इस मामले में किसी सहमति पर ही नहीं पहुँच पाई हैं। जबकि बनने के बाद भी इस बांध का जीवन सिर्फ 36 साल आंका गया है। इसके बाद गाद और रेत भर जाने की वजह से यह काम नहीं कर पाएगा।”

‘दूसरे के घर में आई बाढ़ सभी को अच्छी लगती है’

बाढ़ समस्या पर प्रकाशित किताब ‘जब नदी बंधी’ के सह-लेखक और नदी विशेषज्ञ रंजीव प्रशासन कहते हैं कि सरकार के उदासीन रवैये और वोटबैंक की राजनीति ने बिहार बाढ़ की समस्या को नौकरशाही और राजनीति के हाथों की कठपुतली में बदल दिया है।

वो कहते हैं “बिहार का जल संसाधन विभाग जहां बैठता है, उसे जन-भाषा में लोग तीसरा सचिवालय कहते हैं- क्योंकि वह विभाग बाढ़ के जरिए सालों से राज्य की राजनीतिक अर्थ-व्यवस्था के केंद्र में रहा है।”

 

“हिमालय से आने वाली गाद और रेत हमारे लिए और हमारे खेतों के लिए बहुत जरूरी हैं। तटबंध इतने विवाद में रहते हैं लेकिन फिर भी कभी उनके औचित्य पर पुनर्विचार नहीं होता। सिर्फ हर बार टूटे तटबंधों को प्लग करने के लिए करोड़ों रुपया जारी कर दिया जाता है।”

“बाढ़ राहत के तहत बंटने वाले पैसे और सामान को भी वोट बटोरने की राजनीति का एक हिस्सा बना लिया गया है। नौकरशाही और राजनीति – सभी का काम बाढ़ से चल रहा है तो कोई इस समस्या का हल क्यों ढूँढेगा?”

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