सवाल : हर बार आप नये बिहार की बात करते हैं, वो कैसा होगा?जवाब : यहां के हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी धर्म-समुदाय से हो, सभी को आत्मसम्मान की ज़िंदगी मिले। यहां एक कहावत है-घर दही, तो बाहर दही। इसका मतलब है कि जब आप के घर में रोजी-रोजगार, शिक्षा, सड़क, स्वास्थ्य की व्यवस्था बेहतर होगी, तभी आप को बाहर भी सम्मान मिलेगा। पलायन हमारा बहुत बड़ा दर्द है। हमारे पास जो है कभी उसमें संभावनाएं तलाशने की कोशिश ही नहीं की गई। यहां पहला है कृषि योग्य भूमि और दूसरा है मानव संपदा। इन दो चीजों का प्रबंधन किया जाए तो रोजी-रोजगार पैदा किया जा सकता है। उसके अनुरूप ही इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने की जरूरत है।
बिहार के लोग अपनी गाढ़ी कमाई का हिस्सा बाहर जाकर शिक्षा पाने पर खर्च करते हैं। बाहर बीटेक की डिग्री लेकर गुड़गांव-नोएडा में कॉल सेंटर में नौकरी करते हैं, तो कॉल सेंटर कहीं भी खुल सकता है। अगर अमेरिका का काम गुड़गांव से हो सकता है, तो अमेरिका का काम मुजफ्फरपुर या पटना से भी हो सकता है। कुशल प्रबंधन की कमी है। यह तभी होगा कि जब ऐसे राजनेता आएं कि जिनमें राजनीतिक इच्छाशक्ति हो, बिहार को बदलने की। यहां तो खाओ-पकाओ की राजनीति होती है। बिहार एक युवा राज्य है, तो हम युवाओं को अपनी बेहतरी के लिए सोचना पड़ेगा।
सवाल: बिहार में खाओ-पकाओ की राजनीति कब से शुरू हुई?
जवाब: ऐसा नहीं ये आज शुरू हुआ। हम किसी दूसरे पर दोषारोपण करके अपनी जिम्मेदारियों से नहीं बच सकते। इसके लिए इस राज्य की राजनीतिक परंपरा कहीं न कहीं जिम्मेदार है। बिहार का इतिहास जनआंदोलनों का है। 90 के दशक में नवउदारवादी नीतियों से पैसे का जोर बढ़ने लगा। राजनीति का स्वरूप ऐसा होता चला गया कि अगर पैसा नहीं तो पॉलिटिक्स नहीं कर सकते हैं। जो जनता के बीच काम करने वाले साधारण लोग हैं, वो कहीं न कहीं बाहर होते चले गए। पहले गुंडे राजनेताओं के लिए बूथ लूटते थे, फिर गुंडे खुद ही राजनेता हो गए और अपने लिए बूथ लूटने लगे। इसके बाद से अपराधियों का राजनीतिकरण और राजनीति का अपराधीकरण शुरू हो गया।
जब नीतीश जी आए तो लगा कि बिहार में बदलाव होगा, कुछ इंफ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट के काम भी हुए। लेकिन जो बड़ा सवाल था, बाढ़, सुखाड़ का प्रबंधन, राज्य को विशेष मदद, उस पर काम नहीं हुआ। बिहार में न तो पलायन रुका, न ही विकास आखिरी पायदान तक पहुंचा। बिहार में एक से एक पर्यटक स्थलों को विकसित किया जा सकता है। यह भूमि महात्मा बुद्ध, महावीर और गुरू गोविंद सिंह जी से जुड़ी हुई है। इसका अपना इतिहास है। बिहार हमेशा से ही ऊपजाऊ भूमि रही है, खेती, राजनीति और मानव संसाधन के विकास के लिए भी। यह बेहतरीन राज्य हो सकता था। लेकिन राजनीति जाति-धर्म में फंस जाने के चक्कर में जो नवउदारवादी लूट थी उस ओर लोगों का ध्यान नहीं गया। आज बिहार के लोगों की सोच बदली है, लोग रोजी-रोजगार की बात कर रहे हैं। नई पीढ़ी के कंधों पर बेहतर बिहार के निर्माण की एक बड़ी जिम्मेदारी है।
जवाब: कई बार लोग कुछ दिन लड़ने के बाद थक जाते हैं। उनके अंदर एक जड़ता आ जाती है। वो इसलिए कि पिछली व्यवस्था से लड़ रहे थे, जिसको मौका दिया वो भी वैसा ही करने लगा। इससे लोकतंत्र के प्रति कहीं लोगों में विश्वास की कमी पैदा हुई है। लोगों को लगने लगा कि सरकार बदल जाएगी पर हमारा जीवन नहीं बदलेगा। इसके लिए विकल्पहीनता बड़ा कारण है। बिहार की जनता जिस नेता पर भरोसा जताती है वो आज यहां खड़ा है, तो कल कहीं और। लोगों के मन में घर करता चला गया कि कोईनेता हमारे जीवन में बदलाव नहीं लाएगा। हम जो कर रहे हैं, हमारे साथ यही होगा, इसमें कोई बदलाव नहीं आएगा। लोगों में खत्म हुए विश्वास को हम फिर से लाना चाहते हैं। राजनीति में विकल्प नहीं, विकल्प की राजनीति खोजनी होगी। बिहार में विकल्प की राजनीति ये हो सकती है कि यहां कृषि को विकसित किया जाए। यहां कृषि संबंधित उद्योग लगें। मानव संसाधन का प्रबंधन करके रोजी-रोजगार का जुगाड़ किया जाए।
सवाल: क्या कन्हैया कुमार बिहार में विकल्प की राजनीति के अगुआ बन सकते हैं?
जवाब: यहां अगुआ होने की जरूरत नही है, टीम बनाने की जरूरत है। दिक्कत अगुआ होने के कांसेप्ट से है, अगर कोई एक अगुआ होगा तो बाकी सब सेकंड, थर्ड हो जाएंगे। यहां एक सामूहिक प्रयास की बात है। नेता को क्रिकेट टीम के कप्तान के रूप में देखना चाहिए। अकेला कप्तान मैच नहीं जिता सकता, बैटिंग, बॉलिंग, फील्डिंग सभी की भूमिका होती है। पर्दे के पीछे कोच और टीम मैनेजर की भूमिका होती है। इसी तरह टीम वर्क हमारे जीवन में आना जरूरी है। ये जो व्यक्तिवाद है बहुत खतरनाक है। लोग अपना विश्वास एक व्यक्ति के ऊपर लगाते हैं, अगर वो चेहरा करप्ट हो गया तो उसका कोई विकल्प नहीं होता। बिहार में लोग व्यक्ति विशेष पर ही भरोसा जता कर हार जाते हैं। हम जिस राजनीति की बात कर रहे हैं, उसमें नेता नहीं, नीति का सवाल है।
सवाल: बिहार के पढ़े-लिखे लोग वापस क्यूं नहीं आते?
जवाब: पलायन देश के अंदर और देश से बाहर भी है। पंजाब से जो लोग कनाडा या अमेरिका जाते हैं, वो वापस पंजाब क्यूं नहीं आते? जो सामाजिक वातावरण दूसरे राज्यों या देश में मिलता है या जो सुख सुविधाएं मिलती हैं, वो अपने राज्य में नहीं मिलतीं, तो वापस नहीं आते। जब तक हम यह वातावरण अपने राज्य में विकसित नहीं करेंगे, तो लोग पलायन करते रहेंगे। एक समय के बाद पलायन का विकल्प भी खत्म हो जाता है। मेरा सवाल बार-बार यही है कि अगर कोटा में पढ़ने वाला बिहारी, पढ़ाने वाला बिहारी तो कोचिंग कोटा में क्यूं हो?
जवाब : देखिए, राजनीति बदलती रहती है, वक्त के साथ संगठन को भी अपनी कार्य प्रणाली बदलते रहना होता है। 90 के दशक तक वाम दल किसानों-मजदूरों की राजनीति करते थे। एक वर्ग को संगठित करके राजनीति करते थे, वर्ग की चेतना बदल गई। आज जाति और धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण होना शुरू हो गया। वामपंथी गरीबी-अमीरी के आधार पर ध्रुवीकरण तो कर सकते हैं, लेकिन जाति-धर्म पर नहीं। वक्त के साथ मुद्दे भी बदलते हैं। जैसे समाज बदलता है, राजनीति भी बदलनी चाहिए, कार्य पद्धति भी बदलनी चाहिए। तभी राजनीति प्रासंगिक रह पाती है।
सवाल: राजद ने आप के खिलाफ प्रत्याशी उतारा था, आज उनके उम्मीदवारों के लिए वोट मांग मांगते समय कितना सहज हैं?
जवाब: अगर आप व्यक्तिवादी नहीं हैं, और नीतियों की राजनीति करते हैं, तो बिल्कुल सहज रहेंगे। हम जो 2019 में चुनाव लड़े, जो घोषणा पत्र तैयार किया था, उसका प्रतिबिंब महागठबंधन के घोषणा पत्र में मिलेगा। अगर व्यक्तिवादी राजनीति में फसेंगे, तो असहज महसूस करेंगे। गठबंधन हमने चेहरे के लिए नहीं, सरकार बदलने के लिए किया है। नये बिहार के लिए किए हैं, जिसका आधार वो नीतियां हैं, मुद्दे हैं।
सवाल: क्या गठबंधन सिर्फ भाजपा को हराने के लिए है?
जवाब : नहीं, ये बिल्कुल गलत है। भाजपा, लालूजी के राज को जंगलराज कहती है, तो जब 1990 में लालू यादव की सरकार बनी थी भाजपा ने सपोर्ट किया था, अगर जंगलराज था, तो भाजपा ही लेकर आई। मजेदार बात ये है कि लालू यादव का भाजपा और भाकपा दोनों समर्थन कर रहे थे, कांग्रेस को हराने के लिए। उसी परिस्थिति को आज यहां लागू करें तो प्रश्न क्या है कि हम नया बिहार बनाना चाहते हैं। नया बिहार भाजपा को हरा के ही बन सकता है।
सवाल: कहा जा रहा है कि आप जिन्हें चाह रहे थे उन्हें टिकट नहीं दिला पाए?
जवाब: इसमें व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं होता है, सामूहिक फैसले लिए जाते हैं। मैं उसी सामूहिक फैसले का हिस्सा हूं। टिकट किसी गैंग को नहीं, कार्यकर्ताओं को दिया गया है। पार्टी के फैसले के साथ हम लोग रहते हैं।
सार
बिहार की बदहाली के लिए नेता जिम्मेदार हैं। इच्छाशक्ति की कमी है। लोग बदलाव के बारे में सोचने में 15-15 साल इसलिए लगा देते हैं कि उनके पास विकल्प नहीं होता। राजनीति में विकल्प नहीं, विकल्प की राजनीति खोजनी होगी। नये बिहार और यहां की राजनीति समेत कई मुद्दों पर वाम नेता कन्हैया कुमार से मनीष मिश्र की खास बातचीत।
विस्तार
सवाल : हर बार आप नये बिहार की बात करते हैं, वो कैसा होगा?
जवाब : यहां के हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी धर्म-समुदाय से हो, सभी को आत्मसम्मान की ज़िंदगी मिले। यहां एक कहावत है-घर दही, तो बाहर दही। इसका मतलब है कि जब आप के घर में रोजी-रोजगार, शिक्षा, सड़क, स्वास्थ्य की व्यवस्था बेहतर होगी, तभी आप को बाहर भी सम्मान मिलेगा। पलायन हमारा बहुत बड़ा दर्द है। हमारे पास जो है कभी उसमें संभावनाएं तलाशने की कोशिश ही नहीं की गई। यहां पहला है कृषि योग्य भूमि और दूसरा है मानव संपदा। इन दो चीजों का प्रबंधन किया जाए तो रोजी-रोजगार पैदा किया जा सकता है। उसके अनुरूप ही इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने की जरूरत है।
बिहार के लोग अपनी गाढ़ी कमाई का हिस्सा बाहर जाकर शिक्षा पाने पर खर्च करते हैं। बाहर बीटेक की डिग्री लेकर गुड़गांव-नोएडा में कॉल सेंटर में नौकरी करते हैं, तो कॉल सेंटर कहीं भी खुल सकता है। अगर अमेरिका का काम गुड़गांव से हो सकता है, तो अमेरिका का काम मुजफ्फरपुर या पटना से भी हो सकता है। कुशल प्रबंधन की कमी है। यह तभी होगा कि जब ऐसे राजनेता आएं कि जिनमें राजनीतिक इच्छाशक्ति हो, बिहार को बदलने की। यहां तो खाओ-पकाओ की राजनीति होती है। बिहार एक युवा राज्य है, तो हम युवाओं को अपनी बेहतरी के लिए सोचना पड़ेगा।
सवाल: बिहार में खाओ-पकाओ की राजनीति कब से शुरू हुई?
जवाब: ऐसा नहीं ये आज शुरू हुआ। हम किसी दूसरे पर दोषारोपण करके अपनी जिम्मेदारियों से नहीं बच सकते। इसके लिए इस राज्य की राजनीतिक परंपरा कहीं न कहीं जिम्मेदार है। बिहार का इतिहास जनआंदोलनों का है। 90 के दशक में नवउदारवादी नीतियों से पैसे का जोर बढ़ने लगा। राजनीति का स्वरूप ऐसा होता चला गया कि अगर पैसा नहीं तो पॉलिटिक्स नहीं कर सकते हैं। जो जनता के बीच काम करने वाले साधारण लोग हैं, वो कहीं न कहीं बाहर होते चले गए। पहले गुंडे राजनेताओं के लिए बूथ लूटते थे, फिर गुंडे खुद ही राजनेता हो गए और अपने लिए बूथ लूटने लगे। इसके बाद से अपराधियों का राजनीतिकरण और राजनीति का अपराधीकरण शुरू हो गया।
जब नीतीश जी आए तो लगा कि बिहार में बदलाव होगा, कुछ इंफ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट के काम भी हुए। लेकिन जो बड़ा सवाल था, बाढ़, सुखाड़ का प्रबंधन, राज्य को विशेष मदद, उस पर काम नहीं हुआ। बिहार में न तो पलायन रुका, न ही विकास आखिरी पायदान तक पहुंचा। बिहार में एक से एक पर्यटक स्थलों को विकसित किया जा सकता है। यह भूमि महात्मा बुद्ध, महावीर और गुरू गोविंद सिंह जी से जुड़ी हुई है। इसका अपना इतिहास है। बिहार हमेशा से ही ऊपजाऊ भूमि रही है, खेती, राजनीति और मानव संसाधन के विकास के लिए भी। यह बेहतरीन राज्य हो सकता था। लेकिन राजनीति जाति-धर्म में फंस जाने के चक्कर में जो नवउदारवादी लूट थी उस ओर लोगों का ध्यान नहीं गया। आज बिहार के लोगों की सोच बदली है, लोग रोजी-रोजगार की बात कर रहे हैं। नई पीढ़ी के कंधों पर बेहतर बिहार के निर्माण की एक बड़ी जिम्मेदारी है।
सवाल: बिहार के लोग बदलाव के लिए 15-15 साल क्यूं लगा देते हैं?
जवाब: कई बार लोग कुछ दिन लड़ने के बाद थक जाते हैं। उनके अंदर एक जड़ता आ जाती है। वो इसलिए कि पिछली व्यवस्था से लड़ रहे थे, जिसको मौका दिया वो भी वैसा ही करने लगा। इससे लोकतंत्र के प्रति कहीं लोगों में विश्वास की कमी पैदा हुई है। लोगों को लगने लगा कि सरकार बदल जाएगी पर हमारा जीवन नहीं बदलेगा। इसके लिए विकल्पहीनता बड़ा कारण है। बिहार की जनता जिस नेता पर भरोसा जताती है वो आज यहां खड़ा है, तो कल कहीं और। लोगों के मन में घर करता चला गया कि कोईनेता हमारे जीवन में बदलाव नहीं लाएगा। हम जो कर रहे हैं, हमारे साथ यही होगा, इसमें कोई बदलाव नहीं आएगा। लोगों में खत्म हुए विश्वास को हम फिर से लाना चाहते हैं। राजनीति में विकल्प नहीं, विकल्प की राजनीति खोजनी होगी। बिहार में विकल्प की राजनीति ये हो सकती है कि यहां कृषि को विकसित किया जाए। यहां कृषि संबंधित उद्योग लगें। मानव संसाधन का प्रबंधन करके रोजी-रोजगार का जुगाड़ किया जाए।
सवाल: क्या कन्हैया कुमार बिहार में विकल्प की राजनीति के अगुआ बन सकते हैं?
जवाब: यहां अगुआ होने की जरूरत नही है, टीम बनाने की जरूरत है। दिक्कत अगुआ होने के कांसेप्ट से है, अगर कोई एक अगुआ होगा तो बाकी सब सेकंड, थर्ड हो जाएंगे। यहां एक सामूहिक प्रयास की बात है। नेता को क्रिकेट टीम के कप्तान के रूप में देखना चाहिए। अकेला कप्तान मैच नहीं जिता सकता, बैटिंग, बॉलिंग, फील्डिंग सभी की भूमिका होती है। पर्दे के पीछे कोच और टीम मैनेजर की भूमिका होती है। इसी तरह टीम वर्क हमारे जीवन में आना जरूरी है। ये जो व्यक्तिवाद है बहुत खतरनाक है। लोग अपना विश्वास एक व्यक्ति के ऊपर लगाते हैं, अगर वो चेहरा करप्ट हो गया तो उसका कोई विकल्प नहीं होता। बिहार में लोग व्यक्ति विशेष पर ही भरोसा जता कर हार जाते हैं। हम जिस राजनीति की बात कर रहे हैं, उसमें नेता नहीं, नीति का सवाल है।
सवाल: बिहार के पढ़े-लिखे लोग वापस क्यूं नहीं आते?
जवाब: पलायन देश के अंदर और देश से बाहर भी है। पंजाब से जो लोग कनाडा या अमेरिका जाते हैं, वो वापस पंजाब क्यूं नहीं आते? जो सामाजिक वातावरण दूसरे राज्यों या देश में मिलता है या जो सुख सुविधाएं मिलती हैं, वो अपने राज्य में नहीं मिलतीं, तो वापस नहीं आते। जब तक हम यह वातावरण अपने राज्य में विकसित नहीं करेंगे, तो लोग पलायन करते रहेंगे। एक समय के बाद पलायन का विकल्प भी खत्म हो जाता है। मेरा सवाल बार-बार यही है कि अगर कोटा में पढ़ने वाला बिहारी, पढ़ाने वाला बिहारी तो कोचिंग कोटा में क्यूं हो?
सवाल : बिहार में वाम दल अस्तित्व की लड़ाई क्यूं लड़ रहे?
जवाब : देखिए, राजनीति बदलती रहती है, वक्त के साथ संगठन को भी अपनी कार्य प्रणाली बदलते रहना होता है। 90 के दशक तक वाम दल किसानों-मजदूरों की राजनीति करते थे। एक वर्ग को संगठित करके राजनीति करते थे, वर्ग की चेतना बदल गई। आज जाति और धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण होना शुरू हो गया। वामपंथी गरीबी-अमीरी के आधार पर ध्रुवीकरण तो कर सकते हैं, लेकिन जाति-धर्म पर नहीं। वक्त के साथ मुद्दे भी बदलते हैं। जैसे समाज बदलता है, राजनीति भी बदलनी चाहिए, कार्य पद्धति भी बदलनी चाहिए। तभी राजनीति प्रासंगिक रह पाती है।
सवाल: राजद ने आप के खिलाफ प्रत्याशी उतारा था, आज उनके उम्मीदवारों के लिए वोट मांग मांगते समय कितना सहज हैं?
जवाब: अगर आप व्यक्तिवादी नहीं हैं, और नीतियों की राजनीति करते हैं, तो बिल्कुल सहज रहेंगे। हम जो 2019 में चुनाव लड़े, जो घोषणा पत्र तैयार किया था, उसका प्रतिबिंब महागठबंधन के घोषणा पत्र में मिलेगा। अगर व्यक्तिवादी राजनीति में फसेंगे, तो असहज महसूस करेंगे। गठबंधन हमने चेहरे के लिए नहीं, सरकार बदलने के लिए किया है। नये बिहार के लिए किए हैं, जिसका आधार वो नीतियां हैं, मुद्दे हैं।
सवाल: क्या गठबंधन सिर्फ भाजपा को हराने के लिए है?
जवाब : नहीं, ये बिल्कुल गलत है। भाजपा, लालूजी के राज को जंगलराज कहती है, तो जब 1990 में लालू यादव की सरकार बनी थी भाजपा ने सपोर्ट किया था, अगर जंगलराज था, तो भाजपा ही लेकर आई। मजेदार बात ये है कि लालू यादव का भाजपा और भाकपा दोनों समर्थन कर रहे थे, कांग्रेस को हराने के लिए। उसी परिस्थिति को आज यहां लागू करें तो प्रश्न क्या है कि हम नया बिहार बनाना चाहते हैं। नया बिहार भाजपा को हरा के ही बन सकता है।
सवाल: कहा जा रहा है कि आप जिन्हें चाह रहे थे उन्हें टिकट नहीं दिला पाए?
जवाब: इसमें व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं होता है, सामूहिक फैसले लिए जाते हैं। मैं उसी सामूहिक फैसले का हिस्सा हूं। टिकट किसी गैंग को नहीं, कार्यकर्ताओं को दिया गया है। पार्टी के फैसले के साथ हम लोग रहते हैं।