Bihar Assembly Election 2020 News In Hindi: Lalu Prasad Yadavs Social Justice Or Nitish Kumars Social Engineering, Who Will Win – Bihar Election 2020 : कौन मारेगा मैदान, लालू का सामाजिक न्याय या नीतीश की सोशल इंजीनियरिंग

बिहार चुनाव में एक ही सवाल सबसे ज्यादा चर्चा में है। राज्य की सियासत का पहिया राजद के सामाजिक न्याय की गाड़ी के साथ घूमेगा या फिर अब भी यह पहिया नीतीश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग की गाड़ी के खांचे में ही फिट हो जाएगा।

इसी सियासत के सहारे अपना लोहा मनवा चुके नीतीश और उनकी सोशल इंजीनियरिंग की सियासत का यह चुनाव असली इम्तिहान है। दरअसल नब्बे के दशक से लगभग डेढ़ दशक तक राज्य की सियासत में लालू प्रसाद के सामाजिक न्याय की राजनीति का डंका बजा।

डंका इतनी मजबूती से बजा कि सियासत पर हावी रहे सवर्ण वर्चस्व की राजनीति का अंत हो गया, बल्कि कमंडल की राजनीति भी हाशिये पर चली गई। हालांकि डेढ़ दशक के बाद साल 2005 के विधानसभा चुनाव में लालू की सामाजिक न्याय की राजनीति जदयू और नीतीश कुमार के सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति के आगे फीकी पड़ गई।

नीतीश की सोशल इंजीनियरिंग?

जाति बिहार की राजनीति की सच्चाई है। इसे बखूबी समझते हुए नीतीश ने जातियों के वर्ग के बीच उपवर्ग और जातियों के बीच उपजातियों की श्रेणी तैयार कर सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति का लोहा मनवाया। मसलन करीब 51 फीसदी ओबीसी वर्ग में 22 फीसदी अत्यंत पिछड़ी जाति की उपश्रेणी बनाई।

अनुसूचित जाति में शामिल कई जातियों में से कुछ को अलग कर अति पिछड़ी जाति की श्रेणी बनाई। ब्राह्मणों की उपजाति गिरी को ओबीसी का दर्जा दिया। मुस्लिम वर्ग में कुलहैया जाति और ओबीसी में शामिल राजबंशियों को ईबीसी में शामिल किया। इसके बाद अगड़ों में आधार वाली भाजपा का जब नीतीश को साथ मिला तो वह बिहार की सियासत में अजेय दिखने लगे।

सोशल इंजीनियरिंग की पैठ

संख्या बल की दृष्टि से देखें तो नीतीश ने सोशल इंजीनियरिंग के सहारे एक मजबूत वोट बैंक तैयार किया। इसके सहारे नीतीश ने 22 फीसदी ईबीसी,12 फीसदी कोइरी-कुर्मी-कुशवाहा और 8 फीसदी महादलितों का एक नया वोट बैंक तैयार किया। इसके बाद जब 16 फीसदी अगड़ों में व्यापक प्रभाव रखने वाली भाजपा का जदयू को साथ मिला तो यह सोशल इंजीनियरिंग ने अजेय रूप ले लिया।

अनुसूचित जातियोंराजद सुप्रीमो के पास बिहार की सियासत का ज्योति बसु बनने का बड़ा अवसर था। नब्बे के दशक में मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने के बाद लालू बिहार की सियासत में सामाजिक न्याय का प्रतीक बन कर उभरे। हालांकि  सत्ता में आने के बाद उन्होंने कर्पुरी ठाकुर के कार्यकाल से चले आ रहे अन्य पिछड़ी जाति के कोटे में बनाई गई अति पिछड़ी जाति की श्रेणी को खत्म कर दिया।

इसके बाद ईबीसी में शामिल जातियां यादवों के खिलाफ गोलबंद होने लगी। उनके सामने जब नीतीश विकल्प के रूप में आए तो ईबीसी ने उन्हें हाथों हाथ लिया। जबकि लालू प्रसाद और उनकी पार्टी का आधार मुख्यत: यादवों और मुसलमानों तक सिमट कर रह गया।

किस करवट बैठेगा ऊंट?

इस चुनाव में एक तथ्य समान हैं। लालू और नीतीश की राजनीति ने दोनों को समान रूप से डेढ़-डेढ़ दशक तक सत्ता दी। सवाल है कि क्या लगातार तीन कार्यकाल के कारण सत्ता के खिलाफ स्वाभाविक तौर पर पैदा सत्ता विरोधी लहर का लाभ राजद को मिलेगा।

ईबीसी, महादलित श्रेणी के मतदाता राजद के साथ जुड़ने के लिए तैयार हैं? अगर इसका जवाब हां है तो यह नीतीश के लिए खतरे का संकेत है। हां, अगर इसका जवाब न है तो संभवत: बिहार में इस बार भी वही होगा जो बीते डेढ़ दशक से होता आ रहा है।

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