The Grand Alliance’s Continuous Decline After Rlsp, Cpi-ml Has Also Made A Distance – बिहार: महागठबंधन का लगातार घट रहा कुनबा, लालू की खल रही कमी, तेजस्वी नाकाम

हिमांशु मिश्र, अमर उजाला, नई दिल्ली

Updated Fri, 02 Oct 2020 06:57 AM IST

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योजना एक-एक विपक्षी दलों को जोड़कर महागठबंधन को और बड़ा कर देने की थी, मगर राजद महागठबंधन के पुराने स्वरूप को भी बरकरार नहीं रख पाया। हम, रालोसपा के बाद अब सीपीआई माले ने भी महागठबंधन से दूरी बना ली। कांग्रेस के साथ राजद की बातचीत परवान नहीं चढ़ रही है। असहमति ठोस योजना का अभाव और छोटे दलों की महत्वाकांक्षा ने विपक्षी एकता की जड़ें मजबूत करने के बदले चार नए मोर्चे को जन्म दे दिया।

कांग्रेस से किच-किच… खल रही लालू की अनुपस्थिति

सीट बंटवारे और चुनावी रणनीति के बारे में मामले में जेल में बंद लालू प्रसाद यादव की कमी महसूस की जा रही है। तेजस्वी को पार्टी ने भले ही महागठबंधन की ओर से सीएम पद का चेहरा बनाया है। उनका सियासी कद बढ़ा है और ना ही सियासी अनुभव। खुद लालू परिवार में असंतोष है, जबकि पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों का एक धड़ा तेजस्वी की कार्यशैली के साथ शुरू से ही तालमेल नहीं बैठा पा रहा।

योजना में पलीता लगने का डर 

राजद की योजना महागठबंधन के माध्यम से अलग-अलग जातियों में पैठ बनाने की थी मसलन कांग्रेस के जरिए सवर्ण, उपेंद्र कुशवाहा के जरिए कोइरी, जीतनराम मांझी के जरिए दलित, वाममोर्चा के जरिए मजदूर वर्ग, मुकेश साहनी के जरिए मल्ला और झामुमो के जरिए आदिवासी वोटों को साधने की थी। अब स्थिति यह है कि महागठबंधन में में झामुमो और मुकेश सहनी बचे हैं। कांग्रेस से किच-किच जारी है।

माले की अलग राह

रालोसपा और हम के इतर सीपीआई माले का महागठबंधन से दूरी राजद के लिए शुभ संकेत नहीं है। 6 वामदलों में सीपीआई माले का ही प्रभाव राज्य में सबसे ज्यादा है बीते चुनाव में माले को तीन सीटें तो वाममोर्चा को चार फ़ीसदी वोट मिले थे। राजद के लिए चिंता की बात यह है कि सीबीआई माले और सीपीआई का राज्य कि 6 दर्जन सीटों पर ठीक-ठाक प्रभाव है। पहले यह कहा जा रहा था कि वामदल भी महागठबंधन का हिस्सा होंगे, पर माले की अलग राह से विपक्ष कमजोर हुआ।

दूसरी तरह का नुकसान राजा और महागठबंधन के इधर राज्य में 4 गठबंधन बने हैं। चारों गठबंधन में शामिल दलों की राजनीति उन्हीं वर्ग के इर्द-गिर्द घूमती है जिन पर राजद का प्रभाव है। ऐसा में अगर यह गठबंधन थोड़े भी प्रभावी हुए तो इसका सीधा नुकसान राजद को उठाना पड़ेगा। हालांकि यह बात और बात है कि बीते चुनावों में जब राजद और जदयू साथ-साथ चुनाव लड़े थे तब राज्य में बाकी विपक्षी दल प्रासंगिक हो गए थे। इस बार राजद और जदयू अलग-अलग चुनाव लड़ रहे हैं और एक दूसरे के सामने भी हैं।

रालोसपा की निगाहें लोजपा कांग्रेस पर

महागठबंधन से अलग हुए और राज्य में शामिल होने में नाकाम रालोसपा की निगाहें लोजपा और कांग्रेस पर टिकी हैं। बहुजन समाज पार्टी सहित कुछ अन्य दलों के साथ तीसरा मोर्चा बनाने वाले उपेंद्र कुशवाहा बुधवार से ही दिल्ली में डेरा जमाए हुए हैं। बसपा से सीटों को लेकर गणित बैठाने के साथ-साथ कांग्रेस की राजद से और लोजपा की राजग से दोस्ती टूटने का कुशवाहा को इंतजार है। कुशवाहा इन्हें तीसरा मोर्चा में शामिल करने के लिए पूरी ताकत झोंकेंगे। अगर ऐसा संभव हुआ तो राज्य की सियासत में दलित पिछड़े मतदाताओं को लामबंद करने में उन्हें कामयाबी मिल सकती है। दलित मतदाता करीब 70 से 75 सीटों पर प्रभावी हैं।

 

योजना एक-एक विपक्षी दलों को जोड़कर महागठबंधन को और बड़ा कर देने की थी, मगर राजद महागठबंधन के पुराने स्वरूप को भी बरकरार नहीं रख पाया। हम, रालोसपा के बाद अब सीपीआई माले ने भी महागठबंधन से दूरी बना ली। कांग्रेस के साथ राजद की बातचीत परवान नहीं चढ़ रही है। असहमति ठोस योजना का अभाव और छोटे दलों की महत्वाकांक्षा ने विपक्षी एकता की जड़ें मजबूत करने के बदले चार नए मोर्चे को जन्म दे दिया।

कांग्रेस से किच-किच… खल रही लालू की अनुपस्थिति

सीट बंटवारे और चुनावी रणनीति के बारे में मामले में जेल में बंद लालू प्रसाद यादव की कमी महसूस की जा रही है। तेजस्वी को पार्टी ने भले ही महागठबंधन की ओर से सीएम पद का चेहरा बनाया है। उनका सियासी कद बढ़ा है और ना ही सियासी अनुभव। खुद लालू परिवार में असंतोष है, जबकि पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों का एक धड़ा तेजस्वी की कार्यशैली के साथ शुरू से ही तालमेल नहीं बैठा पा रहा।

योजना में पलीता लगने का डर 
राजद की योजना महागठबंधन के माध्यम से अलग-अलग जातियों में पैठ बनाने की थी मसलन कांग्रेस के जरिए सवर्ण, उपेंद्र कुशवाहा के जरिए कोइरी, जीतनराम मांझी के जरिए दलित, वाममोर्चा के जरिए मजदूर वर्ग, मुकेश साहनी के जरिए मल्ला और झामुमो के जरिए आदिवासी वोटों को साधने की थी। अब स्थिति यह है कि महागठबंधन में में झामुमो और मुकेश सहनी बचे हैं। कांग्रेस से किच-किच जारी है।

माले की अलग राह

रालोसपा और हम के इतर सीपीआई माले का महागठबंधन से दूरी राजद के लिए शुभ संकेत नहीं है। 6 वामदलों में सीपीआई माले का ही प्रभाव राज्य में सबसे ज्यादा है बीते चुनाव में माले को तीन सीटें तो वाममोर्चा को चार फ़ीसदी वोट मिले थे। राजद के लिए चिंता की बात यह है कि सीबीआई माले और सीपीआई का राज्य कि 6 दर्जन सीटों पर ठीक-ठाक प्रभाव है। पहले यह कहा जा रहा था कि वामदल भी महागठबंधन का हिस्सा होंगे, पर माले की अलग राह से विपक्ष कमजोर हुआ।

दूसरी तरह का नुकसान राजा और महागठबंधन के इधर राज्य में 4 गठबंधन बने हैं। चारों गठबंधन में शामिल दलों की राजनीति उन्हीं वर्ग के इर्द-गिर्द घूमती है जिन पर राजद का प्रभाव है। ऐसा में अगर यह गठबंधन थोड़े भी प्रभावी हुए तो इसका सीधा नुकसान राजद को उठाना पड़ेगा। हालांकि यह बात और बात है कि बीते चुनावों में जब राजद और जदयू साथ-साथ चुनाव लड़े थे तब राज्य में बाकी विपक्षी दल प्रासंगिक हो गए थे। इस बार राजद और जदयू अलग-अलग चुनाव लड़ रहे हैं और एक दूसरे के सामने भी हैं।

रालोसपा की निगाहें लोजपा कांग्रेस पर

महागठबंधन से अलग हुए और राज्य में शामिल होने में नाकाम रालोसपा की निगाहें लोजपा और कांग्रेस पर टिकी हैं। बहुजन समाज पार्टी सहित कुछ अन्य दलों के साथ तीसरा मोर्चा बनाने वाले उपेंद्र कुशवाहा बुधवार से ही दिल्ली में डेरा जमाए हुए हैं। बसपा से सीटों को लेकर गणित बैठाने के साथ-साथ कांग्रेस की राजद से और लोजपा की राजग से दोस्ती टूटने का कुशवाहा को इंतजार है। कुशवाहा इन्हें तीसरा मोर्चा में शामिल करने के लिए पूरी ताकत झोंकेंगे। अगर ऐसा संभव हुआ तो राज्य की सियासत में दलित पिछड़े मतदाताओं को लामबंद करने में उन्हें कामयाबी मिल सकती है। दलित मतदाता करीब 70 से 75 सीटों पर प्रभावी हैं।

 

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