Bihar Assembly Elections: Rjd Only For Congress, Weakened Continuously In Three Decades – बिहार विधानसभा चुनाव: तीन दशक में लगातार कमजोर हुई कांग्रेस के लिए राजद ही रहबर

कुमार निशांत, अमर उजाला, पटना।

Updated Mon, 28 Sep 2020 03:19 AM IST

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पूरे तीस साल हो गए बिहार की सत्ता की राह से कांग्रेस को भटके हुए। बिहार के आखिरी कांग्रेसी मुख्यमंत्री डॉ जगन्नाथ मिश्र थे। डॉ. मिश्र का कार्यकाल 1990 तक था। 1990 में जनता दल ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया। तब से अब तक कांग्रेस संभल नहीं पाई।

कभी अपने दम पर बिहार की सत्ता पर काबिज रहने वाली कांग्रेस अब-तक बिहार में लालू प्रसाद की राजद के भरोसे खुद को खड़ा पाती है। इस बार हालात बदल गए हैं। लालू प्रसाद जेल में हैं और राजनीतिक फैसलों में उनके बेटे तेजस्वी की भूमिका बढ़ गई है। बिहार कांग्रेस की तो छोड़िए दिल्ली से बिहार आए कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को भी तेजस्वी यादव का मुंह ताकना पड़ता है।

क्यों सिमटी कांग्रेस

मंडल और कमंडल आदोलनों के बाद बिहार में कांग्रेस की जमीन खिसक गई। मंडलवादियों ने खुलकर जातिवाद की राजनीति की। कमंडलवादियों ने राम के आसरे धर्म विशेष की राजनीति की। लेकिन कांग्रेस खुलकर ये दोनों काम नहीं कर पाई। इतना ही नहीं कांग्रेस नए लोगों को भी पार्टी से नहीं जोड़ पाई।

कांग्रेस के पुराने नेताओं ने पार्टी पर कब्जा जमाए रखने के चक्कर में एक तरह से नए लोगों के लिए दरवाजे बंद रखे। धीरे-धीरे कांग्रेस का संगठन कमजोर होता गया। आज आलम ये है कि बिहार के कुल प्रखंडों के आधे से ज्यादा प्रखंडों में कांग्रेस का कोई संगठन नहीं है। जिला स्तर पर पार्टी कोई कार्यक्रम नहीं चला पाती है।

थकी नजर आती है कांग्रेस

प्रदेश स्तर पर पार्टी की हालत देखें तो लगेगा जैसे पार्टी अब थक चुकी है। पिछले तीन सालों से पार्टी के प्रदेश कमेटी का गठन नहीं हो पाया है। मदन मोहन झा के प्रदेश अध्यक्ष बनने से पहले कौकब कादरी को प्रभारी अध्यक्ष बनाया गया था। कौकब कादरी ने तब स्वतंत्रता सेनानियों को परिजनों को कांग्रेस से जोड़ने का कार्यक्रम चलाया था। प्रदेश स्तर पर कांग्रेस का ये आखिरी कार्यक्रम रहा।मदन मोहन झा पिछले दो सालों में कोई कार्यक्रम नहीं चला पाए।

2015 वरदान, 2010 शर्मनाक

हालांकि, 2015 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए किसी वरदान से कम साबित नहीं हुआ था। तब राजद और जदयू ने मिलकर चुनाव लड़ा और कांग्रेस को भी अपने गठबंधन में शामिल कर 40 सीटें दी थीं। कांग्रेस ने 40 में 27 सीटों पर जीत दर्ज की। बिहार में कांग्रेस का सबसे बुरा हाल 2010 में हुआ था।

तब राजद से सीट बंटवारे के मुद्दे पर तब के प्रदेश अध्यक्ष अनिल शर्मा की तल्खी हुई थी। पार्टी का संगठन आज के मुकाबले उस वक्त काफी मजबूत था। कांग्रेस अपने बूते 243 सीटों पर उतर गई। लेकिन पार्टी के मात्र चार उम्मीदवार जीत पाए थे। हार कर भी तब कांग्रेस ने राजद का बड़ा नुकसान कर दिया था।

फिर राजद के सहारे

अब एक बार फिर चुनावी शंखनाद हो चुका है। सीटों का बंटवारा तो अभी बाकी है लेकिन यह तय है कि कांग्रेस का राजद से ही गठबंधन रहेगा और राजद की रणनीति पर ही कांग्रेस चुनावी मैदान में होगी। कांग्रेस नेता अविनाश यह संकेत भी दे चुके हैं कि मिलकर लड़ें तो तेजस्वी को महागठबंधन में सीएम का चेहरा मानने पर एतराज नहीं है।

पूरे तीस साल हो गए बिहार की सत्ता की राह से कांग्रेस को भटके हुए। बिहार के आखिरी कांग्रेसी मुख्यमंत्री डॉ जगन्नाथ मिश्र थे। डॉ. मिश्र का कार्यकाल 1990 तक था। 1990 में जनता दल ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया। तब से अब तक कांग्रेस संभल नहीं पाई।

कभी अपने दम पर बिहार की सत्ता पर काबिज रहने वाली कांग्रेस अब-तक बिहार में लालू प्रसाद की राजद के भरोसे खुद को खड़ा पाती है। इस बार हालात बदल गए हैं। लालू प्रसाद जेल में हैं और राजनीतिक फैसलों में उनके बेटे तेजस्वी की भूमिका बढ़ गई है। बिहार कांग्रेस की तो छोड़िए दिल्ली से बिहार आए कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को भी तेजस्वी यादव का मुंह ताकना पड़ता है।

क्यों सिमटी कांग्रेस

मंडल और कमंडल आदोलनों के बाद बिहार में कांग्रेस की जमीन खिसक गई। मंडलवादियों ने खुलकर जातिवाद की राजनीति की। कमंडलवादियों ने राम के आसरे धर्म विशेष की राजनीति की। लेकिन कांग्रेस खुलकर ये दोनों काम नहीं कर पाई। इतना ही नहीं कांग्रेस नए लोगों को भी पार्टी से नहीं जोड़ पाई।

कांग्रेस के पुराने नेताओं ने पार्टी पर कब्जा जमाए रखने के चक्कर में एक तरह से नए लोगों के लिए दरवाजे बंद रखे। धीरे-धीरे कांग्रेस का संगठन कमजोर होता गया। आज आलम ये है कि बिहार के कुल प्रखंडों के आधे से ज्यादा प्रखंडों में कांग्रेस का कोई संगठन नहीं है। जिला स्तर पर पार्टी कोई कार्यक्रम नहीं चला पाती है।

थकी नजर आती है कांग्रेस

प्रदेश स्तर पर पार्टी की हालत देखें तो लगेगा जैसे पार्टी अब थक चुकी है। पिछले तीन सालों से पार्टी के प्रदेश कमेटी का गठन नहीं हो पाया है। मदन मोहन झा के प्रदेश अध्यक्ष बनने से पहले कौकब कादरी को प्रभारी अध्यक्ष बनाया गया था। कौकब कादरी ने तब स्वतंत्रता सेनानियों को परिजनों को कांग्रेस से जोड़ने का कार्यक्रम चलाया था। प्रदेश स्तर पर कांग्रेस का ये आखिरी कार्यक्रम रहा।मदन मोहन झा पिछले दो सालों में कोई कार्यक्रम नहीं चला पाए।

2015 वरदान, 2010 शर्मनाक

हालांकि, 2015 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए किसी वरदान से कम साबित नहीं हुआ था। तब राजद और जदयू ने मिलकर चुनाव लड़ा और कांग्रेस को भी अपने गठबंधन में शामिल कर 40 सीटें दी थीं। कांग्रेस ने 40 में 27 सीटों पर जीत दर्ज की। बिहार में कांग्रेस का सबसे बुरा हाल 2010 में हुआ था।

तब राजद से सीट बंटवारे के मुद्दे पर तब के प्रदेश अध्यक्ष अनिल शर्मा की तल्खी हुई थी। पार्टी का संगठन आज के मुकाबले उस वक्त काफी मजबूत था। कांग्रेस अपने बूते 243 सीटों पर उतर गई। लेकिन पार्टी के मात्र चार उम्मीदवार जीत पाए थे। हार कर भी तब कांग्रेस ने राजद का बड़ा नुकसान कर दिया था।

फिर राजद के सहारे

अब एक बार फिर चुनावी शंखनाद हो चुका है। सीटों का बंटवारा तो अभी बाकी है लेकिन यह तय है कि कांग्रेस का राजद से ही गठबंधन रहेगा और राजद की रणनीति पर ही कांग्रेस चुनावी मैदान में होगी। कांग्रेस नेता अविनाश यह संकेत भी दे चुके हैं कि मिलकर लड़ें तो तेजस्वी को महागठबंधन में सीएम का चेहरा मानने पर एतराज नहीं है।

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