School Shut Mid Day Meal Stopped Which Was Main Backbone Against Nutrition Children Fighting Against Hunger – बिहार: स्कूल और मिड-डे मील बंद, भूख के खिलाफ रोजाना लड़ाई लड़ रहे हैं यहां के बच्चे

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देश में जारी कोरोना वायरस की वजह से सभी स्कूल और कॉलेज 31 जुलाई तक बंद हैं। ऐसे में बिहार के भागलपुर जिले के बाडबिला गांव के मुसहरी टोला के बच्चे रोजाना भूख के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। यहां के बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। इस लड़ाई के खिलाफ उनका मुख्य हथियार यानी की मिड-डे मील (मध्याह्न भोजन) स्कूल बंद होने की वजह से बंद हो गया है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार, 48.3 प्रतिशत बच्चों को (5 साल से कम) ‘अविकसित’ और 43.9 प्रतिशत बच्चों को कम वजन के रूप में वर्गीकृत किया गया था। मुसहरी टोला एक महादलित कॉलोनी है। यहां के बच्चे मुख्य रूप से दूढेला या शाहबाद स्थित सरकारी स्कूल में जाते हैं। जबकि कुछ सुल्तानगंज शहर में भी पढ़ने के लिए जाते हैं।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार उन्हें मध्याह्न भोजन में चावल, रोटी, सब्जियां, दाल, सोया और शुक्रवार को अंडे मिला करते थे। लॉकडाउन की वजह से उनके पोषण को मुख्य स्रोत गायब हो गया है। टोला में रहने वाले दीनू मांझी एक प्लेट में थोड़ा सा चावल, नमक, दाल और चोखा खाते हुए कहते हैं कि इसके अलावा और कुछ नहीं है। एक हजार की जनसंख्या वाले टोला में 250 मतदाता रहते हैं। 

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जातिगत भेदभाव और गरीबी के कारण, यहां के हर कामकाजी पुरुष या महिला के पास केवल दो ही काम हैं- कचरा संग्रह करना या भीख मांगना। अब यह भी खत्म हो गया है। हीरा मांझी को दो किलोमीटर दूर सुल्तानगंज में कचरे को इकट्ठा करने के लिए एक ठेकेदार से प्रतिदिन 300 रुपये मिलते हैं। उन्होंने कहा, ‘अब मैं केवल हफ्ते में दो बार जा पाता हूं।’ उनके बच्चे स्कूल जाने के लिहाज से अभी छोटे हैं लेकिन वे एक समय के भोजन के लिए आंगनवाड़ी जाते थे। वो भी फिलहाल बंद है।

मीना देवी ने बताया कि एक महीने पहले सरकारी अधिकारियों ने सभी राशन कार्ड धारकों को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत पांच किलो चावल या गेहूं और एक किलो दाल दी थी। उन्होंने कहा, ‘उसके बाद कोई नहीं आया। वे क्या सोचते हैं कि एक किलो दाल परिवार में कब तक चलती है? स्कूल में मध्याह्न भोजन के बिना, हम गांव और सुल्तानगंज में लोगों से भोजन मांगते हैं।’

जिलाधिकारी प्रणव कुमार का कहना है कि सरकारी कार्यक्रम के अनुसार, बच्चों या उनके अभिभावकों के खाते में मध्याह्न भोजन के बदले पैसे भेजे गए हैं। उन्होंने कहा, ‘यह उस अवधि के लिए है जब स्कूल बंद हैं।’ यह कदम राज्य सरकार द्वारा 14 मार्च को स्कूलों को बंद करने के एक दिन बाद जारी आदेश पर आधारित है। आदेश में वितरित किए जा रहे भोजन के मूल्य के आधार पर पैसे की गणना की गई। कक्षा 1-5 तक के बच्चों को 15 दिनों के लिए 114.21 रुपये और कक्षा 6-8 के बच्चों के लिए 171.17 रुपये दिए गए।

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हालांकि बाडबिला के लोगों का कहना है कि उन्हें किसी तरह की कोई मदद नहीं मिली है। सुल्तानगंज में शांति देवी कन्या विद्यालय के प्रिंसिपल सुनील गुप्ता का कहना है कि लॉकडाउन-2 तक इतना ही पैसा आया था। जिसे कि अप्रैल के महीने में बैंक खातों में हस्तांतरित कर दिया गया। उन्होंने कहा कि लेकिन 3 मई को लॉकडाउन -2 समाप्त होने के बाद कुछ भी नहीं हुआ है।

वहीं मध्याह्न भोजन के प्रभारी जिला कार्यक्रम अधिकारी सुभाष गुप्ता कहते हैं, ‘पैसा सीधे केंद्रीकृत व्यवस्था से उनके खातों में जा रहा है। मई तक भुगतान किया गया है। भागलपुर में नामांकित बच्चों की संख्या 5.25 लाख है।’ हालांकि अध्यापकों का कहना है कि इस छोटी सी राशि का इस्तेमाल बच्चों को खाना खिलाने के लिए नहीं होगा। माता-पिता इसका प्रयोग कर लेते हैं। बच्चे केवल मध्याह्न भोजन के लिए स्कूल आते हैं।

देश में जारी कोरोना वायरस की वजह से सभी स्कूल और कॉलेज 31 जुलाई तक बंद हैं। ऐसे में बिहार के भागलपुर जिले के बाडबिला गांव के मुसहरी टोला के बच्चे रोजाना भूख के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। यहां के बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। इस लड़ाई के खिलाफ उनका मुख्य हथियार यानी की मिड-डे मील (मध्याह्न भोजन) स्कूल बंद होने की वजह से बंद हो गया है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार, 48.3 प्रतिशत बच्चों को (5 साल से कम) ‘अविकसित’ और 43.9 प्रतिशत बच्चों को कम वजन के रूप में वर्गीकृत किया गया था। मुसहरी टोला एक महादलित कॉलोनी है। यहां के बच्चे मुख्य रूप से दूढेला या शाहबाद स्थित सरकारी स्कूल में जाते हैं। जबकि कुछ सुल्तानगंज शहर में भी पढ़ने के लिए जाते हैं।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार उन्हें मध्याह्न भोजन में चावल, रोटी, सब्जियां, दाल, सोया और शुक्रवार को अंडे मिला करते थे। लॉकडाउन की वजह से उनके पोषण को मुख्य स्रोत गायब हो गया है। टोला में रहने वाले दीनू मांझी एक प्लेट में थोड़ा सा चावल, नमक, दाल और चोखा खाते हुए कहते हैं कि इसके अलावा और कुछ नहीं है। एक हजार की जनसंख्या वाले टोला में 250 मतदाता रहते हैं। 

यह भी पड़ें- कुशीनगर में किसान का बेटा बना 12वीं टॉपर, 10वीं में अभिषेक का पहला स्थान, जानिए क्या है इनका अगला पड़ाव

जातिगत भेदभाव और गरीबी के कारण, यहां के हर कामकाजी पुरुष या महिला के पास केवल दो ही काम हैं- कचरा संग्रह करना या भीख मांगना। अब यह भी खत्म हो गया है। हीरा मांझी को दो किलोमीटर दूर सुल्तानगंज में कचरे को इकट्ठा करने के लिए एक ठेकेदार से प्रतिदिन 300 रुपये मिलते हैं। उन्होंने कहा, ‘अब मैं केवल हफ्ते में दो बार जा पाता हूं।’ उनके बच्चे स्कूल जाने के लिहाज से अभी छोटे हैं लेकिन वे एक समय के भोजन के लिए आंगनवाड़ी जाते थे। वो भी फिलहाल बंद है।

मीना देवी ने बताया कि एक महीने पहले सरकारी अधिकारियों ने सभी राशन कार्ड धारकों को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत पांच किलो चावल या गेहूं और एक किलो दाल दी थी। उन्होंने कहा, ‘उसके बाद कोई नहीं आया। वे क्या सोचते हैं कि एक किलो दाल परिवार में कब तक चलती है? स्कूल में मध्याह्न भोजन के बिना, हम गांव और सुल्तानगंज में लोगों से भोजन मांगते हैं।’


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केवल मध्याह्न भोजन के लिए स्कूल जाते हैं बच्चे

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