Kurukshetra: How Long Will Nitish Kumar Be Chief Minister Of Bihar, Will He Complete The 5 Years Term – कुरुक्षेत्रः तेजस्वी के तेज से निस्तेज नीतीश कुमार कब तक रहेंगे मुख्यमंत्री

नरेंद्र मोदी-नीतीश कुमार (फाइल फोटो)
– फोटो : PTI

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बेहद रस्साकसी के बाद भाजपा, जनता दल(य़ू) के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक ने गठबंधन (एनडीए) ने बिहार विधानसभा चुनावों में बहुमत पाकर अपनी सरकार फिर बनाने का रास्ता साफ कर लिया। गठबंधन धर्म का निर्वाह करते हुए भाजपा कम सीटों वाले जद(यू) के नेता नीतीश कुमार को फिर मुख्यमंत्री बना रही है, लेकिन कितने समय के लिए और कब वह नीतीश की जगह बिहार में अपने किसी नेता को मुख्यमंत्री बनाएगी, इसका जवाब भविष्य में ही मिलेगा, क्योंकि पिछले करीब डेढ़ दशक से नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाए रखने वाली भाजपा,उसके कार्यकर्ता और समथर्क जनाधार अब बिहार में अपना मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं।

क्या पांच साल का कार्यकाल पूरा कर पाएंगे नीतीश?

भाजपा के भीतर भी इसके स्वर उठे हैं, लेकिन फिलहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, गृह मंत्री अमित शाह, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष संजय जायसवाल और उप मुख्यमंत्री व भाजपा जद(यू) गठबंधन के शिल्पकार सुशील मोदी समेत पार्टी के सभी बड़े नेता साफ कर चुके हैं कि भले ही भाजपा की सीटें जद(यू) से काफी ज्यादा हैं, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनेंगे। लेकिन यह किसी नेता ने नहीं कहा कि नीतीश अगले पूरे पांच साल के लिए मुख्यमंत्री बने रहेंगे और क्योंकि चुनाव में नीतीश कुमार खुद इस चुनाव को अपना आखिरी चुनाव कह चुके हैं तो भाजपा निश्चित रूप से अगले चुनाव से पहले बिहार में अपना मुख्यमंत्री चाहेगी, जिसके नेतृत्व में 2025 का विधानसभा चुनाव लड़ सके।

आती हुई पीढ़ी बनाम जाती हुई पीढ़ी!

इस तरह नीतीश कुमार ने बिहार की सियासत से विदाई लेने से पहले राज्य में भाजपा की अपनी सरकार बनाने की जमीन तैयार कर दी है। अब बिहार की लड़ाई भाजपा बनाम उस राष्ट्रीय जनता दल से होगी, जिसके नेता तेजस्वी यादव होंगे। बिहार का यह चुनाव नीतीश कुमार को बचाने और तेजस्वी यादव को बनाने के नाम पर लड़ा गया। आने वाले दिनों में जब भी 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों की चर्चा होगी, इसे नीतीश बनाम तेजस्वी के बहाने आती हुई पीढ़ी बनाम जाती हुई पीढ़ी के संघर्ष के रूप में याद किया जाएगा।

इन चुनावों के नतीजों से जहां बिहार की सियासत से नीतीश कुमार की कमजोर होती ताकत की इबारत लिख दी गई है, वहीं इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के एक बार फिर नीतीश सरकार के प्रति सत्ता विरोधी रूझान पर भारी पड़ते के रूप में भी देखा जा सकता है। क्योंकि मोदी ने बिहार के दो करीब एक दर्जन चुनावी जनसभाओं को संबोधित किया, जिनमें धारा 370, भारत माता की जय, पुलवामा और राम मंदिर तक के मुद्दे उठाए और जिस रस्साकसी के बाद भाजपा राज्य में राजद से महज एक सीट पीछे रहकर दूसरी नंबर की पार्टी बनी है, उससे साबित है कि बिहार में एनडीए का खिसकता जनाधार मोदी पर भरोसा करके वापस लौट आया।

नीतीश ने अपनाया हर हथकंडा

इन चुनावों में जिस तरह नीतीश कुमार ने बार-बार वाणी का संयम खोया, जातियों की संख्या के आधार पर आरक्षण का दांव चला और आखिर में इस चुनाव को अपना आखिरी चुनाव बता कर मार्मिक अपील की, उससे यह लगता है कि नीतीश कुमार को चुनाव में पराजय का खतरा दिखने लगा था और वह हर वो हथकंडा अपना रहे थे जिससे खिसकती जमीन को बचाया जा सके। नतीजों के बाद नीतीश की जमीन तो कमजोर हुई है लेकिन फिलहाल बिहार की राजनीति से तो उनकी विदाई अभी नहीं होगी, लेकिन अब उन्हें गठबंधन के बड़े दल भाजपा के पूरे दबाव में रहना होगा। नीतीश कुमार के एक करीबी मित्र राजनेता के शब्दों में नीतीश जी मुख्यमंत्री तो बने रहेंगे लेकिन श्रीहीन रहेंगे।

कभी नीतीश को कर्पूरी ठाकुर ने नहीं दिया था टिकट

इन चुनावों की पहली खास बात ये रही कि वह नीतीश कुमार जिन्हें कभी बिहार के दिग्गज नेता रहे कर्पूरी ठाकुर ने 1977 में विधानसभा चुनाव में टिकट देना भी मुनासिब नहीं समझा था और चौधरी चरण सिंह के हस्तक्षेप से उन्हें टिकट मिला, आज बिहार की सियासत के सबसे बड़े नेता हैं और देश के शक्तिशाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी उनका सहारा पिछले लोकसभा और मौजूदा विधानसभा चुनावों में लेना पड़ा। लेकिन वही नीतीश कुमार जिन्हें कभी न सिर्फ अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी की भाजपा ने बिहार में अपना नेता माना और मुख्यमंत्री बनाए रखा, बल्कि 2015 में धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव के राजद ने भी नीतीश को ही आगे करके चुनाव लड़ा वह लालू यादव के उस बेटे जिसे उन्होंने अपना उप मुख्यमंत्री बनाया था, के सामने आखिरी दौर तक इतने लाचार हो गए कि उन्हें अपने आखिरी चुनाव की दुहाई देनी पड़ी। इसके बावजूद उनकी सीटें पिछले चुनाव की तुलना में 70 से घटकर 42 रह गईं।

चौधरी चरण सिंह ने दिया टिकट

गौरतलब है कि 1977 में बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने से लेकर आज तक नीतीश कुमार ने हार और जीत दोनों ही देखी और हर चुनाव के बाद उन्होंने नया मुकाम हासिल किया। पूर्व केंद्रीय मंत्री और एक जमाने में नीतीश कुमार के बेहद शुभचिंतक रहे स्वर्गीय बेनीप्रसाद वर्मा ने कभी बताया था कि किस तरह 1977 में जब बिहार विधानसभा के चुनाव हो रहे थे,तो नीतीश कुमार जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके थे, उनके पास आए और विधानसभा चुनाव लड़ने की इच्छा जताई। उन दिनों उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा आदि राज्यों में टिकट वितरण में चरण सिंह का फैसला अंतिम होता था।

बेनी प्रसाद वर्मा जो तब चरण सिंह की बेहद विश्वस्त थे और युवा लोकदल के राष्ट्रीय महासचिव रह चुके थे, ने नीतीश कुमार की सिफारिश चौधरी चरण सिंह से की। उन्होंने बिहार के उम्मीदवारों की सूची देखी जो कर्पूरी ठाकुर ने अंतिम रूप देकर स्वीकृति के लिए भेजी थी। उसमें नीतीश कुमार का नाम नहीं था। बेनी प्रसाद वर्मा का दावा था कि उनके बहुत आग्रह करने पर चरण सिंह ने कर्पूरी द्वारा भेजे गए नाम को काटकर नीतीश कुमार का नाम लिख दिया। लेकिन नीतीश यह चुनाव हार गए पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।

तेजस्वी से हारते-हारते जीते नीतीश

नीतीश कुमार 1980 में फिर लड़े और हारे। लेकिन 1985 में वह फिर लड़े और जीते। इसके बाद 1989 में लोकसभा में चुनकर आए। केंद्र में मंत्री बने। मंडल राजनीति की सियासत में वह बिहार में लालू प्रसाद यादव विरोधी ध्रुव बन गए और 2005 में लालू और राजद को सत्ता से बेदखल करके ही दम लिया। जिस नीतीश कुमार ने 2005 में उन लालू प्रसाद यादव को बिहार की सत्ता से बाहर किया था जो केंद्र की यूपीए सरकार में रेल मंत्री थे और उनका दावा था कि जब तक समोसे में आलू बिहार में लालू। यह बिडंबना है कि वही नीतीश कुमार आज लालू प्रसाद यादव के उस बेटे से जिसे नीतीश के सामने राजनीति में नौसिखिया ही माना जाएगा, हारते-हारते जीते हैं और वह भी तब जब उनके साथ देश की सबसे शक्तिशाली पार्टी भाजपा और देश के सबसे शक्तिशाली नेता नरेंद्र मोदी थे। वैसे भी 2015 में नीतीश के जद(य़ू) की सीटें लालू के राजद से महज दस ही कम थीं, जबकि लालू के बेटे से मुकाबले में अब यह अंतर तीन गुना सीटों का हो गया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो चुनाव में एक दर्जन सभाओं को संबोधित करके न सिर्फ भाजपा की सीटों में इजाफा किया बल्कि एनडीए के चाणक्य कहे जाने वाले गृह मंत्री अमित शाह का बिहार चुनाव से पूरी तरह दूर रहना भी बताता है कि मोदी मैजिक को किसी सहारे की जरूरत नहीं है। नीतीश कुमार के कमजोर होने की क्या वजह है। नीतीश की प्रशासनिक क्षमता, ईमानदारी और राजनीतिक दृष्टि आज भी बरकरार है। लेकिन उनके 2013 के पाला बदल ने उनसे उस सामाजिक राजनीतिक वर्ग को नाराज किया, जिसके सहारे उन्होंने 1996 से 2013 तक केंद्र और राज्स की सत्ता पर काबिज रहे।

नीतीश कुमार ने आसान रास्ता अपनाया

2015 में लालू यादव से दोस्ती ने नीतीश के उस पुराने सामाजिक आधार को मजबूत किया जिसके वह सच्चे वारिस थे और अगर वह इस पाले में डटे रहते तो लालू प्रसाद यादव महज अपनी सजातीय जनाधार के एक वर्ग तक ही सीमित रह जाते और सामाजिक न्याय की मंडल राजनीति का सारा पिछड़ा, अति पिछड़ा दलित और महादलित और अल्पसंख्यक जनाधार नीतीश कुमार के साथ एकजुट होता। साथ ही उनकी प्रशासनिक क्षमता और ईमानदारी समाज के उस हिस्से को भी उनसे जोड़ती जो जातीय गोलबंदी से हटकर वोट देता है। नीतीश अपने इस जनाधार और अपील का विस्तार बिहार की सीमाओं से बाहर भी कर सकते थे और भाजपा विरोधी मोर्चे के सर्वमान्य नेता हो सकते थे।

लेकिन इसके लिए नीतीश कुमार को वक्त के साथ-साथ सियासी लड़ाई का एक लंबा सफर तय करना पड़ता। लेकिन नीतीश कुमार ने आसान रास्ता अपनाया और उन्होंने सिर्फ अपनी बिहार सरकार को बचाने के लिए उसी भाजपा से समझौता किया, जिसके नेता नरेंद्र मोदी और अमित शाह हैं और जिनके सवाल पर नीतीश कुमार ने बेहद आक्रामक ढंग से भाजपा से नाता तोड़ा था। उनके इस कदम से उनका वह सारा सामाजिक जनाधार खिसक गया जो उनसे मोदी विरोधी राजनीति का नेतृत्व करने की उम्मीद संजोए हुए था, जबकि भाजपा समर्थक सामाजिक वर्ग ने नीतीश को उस तरह मन से स्वीकार नहीं किया जैसे कि उसने 2005 और 2010 में स्वीकारा था।

न घर का रखा न घाट का

नीतीश कुमार की इसी सियासी मौकापरस्ती ने उन्हें न घर का रखा न घाट का और आज उन्हें लालू यादव के उस बेटे के सामने अपने आखिरी चुनाव की दुहाई देनी पड़ी जिसे कभी उन्होंने कभी गठबंधन के दबाव में मंत्री बनाया था। बेहद दिलचस्प रहे ये चुनाव और कई मायनों में इन्हें भविष्य में याद रखा जाएगा ।इन चुनावों का सबसे अहम पहलू ये है कि 1990 के बाद बिहार के नेताओं की जिस पीढ़ी ने तब से लेकर 2020 तक तीस साल राज्य की राजनीति की अगुआई की उस पीढ़ी का यह आखिरी चुनाव है। नतीजे जो भी रहे हों, लेकिन इसी चुनाव के गर्भ से बिहार की सियासत के अगले सालों के लिए कम से कम दो युवा नेता तेजस्वी यादव और चिराग पासवान भी तैयार हो गए हैं और लंबे समय बाद बिहार में चुनावी शतरंज की बिसात पर जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ऊपर बेरोजगारी, प्रवासी मजदूरों की समस्या और स्कूल अस्पताल के मुद्दे राजनीतिक विमर्श में भारी पड़ते दिखाई दिए। इसका श्रेय अगर सबसे ज्यादा किसी को दिया जा सकता है तो तेजस्वी यादव को ही देना होगा।

अज्ञातवास में रहे थे तेजस्वी!

तेजस्वी यादव जो विधानसभा में विपक्ष के नेता होने के साथ साथ पिता लालू प्रसाद यादव की चुनाव में गैर मौजूदगी में राजद की भी कमान संभाल रहे हैं, ने बेहद समझदारी और परिपक्वता दिखाई है। लोकसभा चुनावों में राजद और कांग्रेस गठबंधन की पराजय के बाद तेजस्वी कई महीनों के लिए अज्ञातवास जैसी स्थिति में चले गए थे। चुनाव से करीब दो महीने पहले तक ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक यही कहते थे कि बिहार में नीतीश सरकार के खिलाफ माहौल तो है लेकिन तेजस्वी यादव विकल्प नहीं बन पा रहे है, इसलिए ले देकर नीतीश की अगुआई में एनडीए की वापसी हो जाएगी। लेकिन इसे करिश्मा ही कहा जाएगा कि इन सारे अनुमानों के विपरीत तेजस्वी ने बिहार की चुनावी सियासत में न सिर्फ अपने सहयोगियों कांग्रेस और वाम दलों के साथ सीटों के बंटवारे को सहज ढंग से किया बल्कि उन्होंने पूरे चुनाव का विमर्श ही बदल दिया और एनडीए के मुकाबले महागठबंधन के पिछड़ने के बावजूद उन्होंने राजद को भाजपा आगे रखकर उसे विधानसभा में सबसे बड़ा दल बनाया।

हिंदुत्व और राष्ट्रवादी एजेंडा हुआ फेल!

आम तौर पर भाजपा अपना एजेंडा सेट करने में सिद्धहस्त है और नीतीश कुमार को तेजस्वी के मुकाबले ज्यादा विश्वस्त और भरोसेमंद नेता के तौर पर पेश किया जा रहा था, उसे तेजस्वी के बेरोजगारी, प्रवासी मजदूरों की पीड़ा और बदलाव के एजेंडे ने पीछे छोड़ दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी , भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनात समेत सभी नेताओं ने चुनाव को हिंदुत्व और राष्ट्रवादी एजेंडे की ओर ले जाने की भरसक कोशिश की लेकिन तेजस्वी अपने मुद्दों से टस से मस नहीं हुए और पूरे चुनाव का मुख्य विमर्श बेरोजगारी प्रवासी मजदूर और बदलाव हो गए। हमेशा जातीय और सांप्रदायिक गोलबंदी पर होने वाले बिहार चुनावों में बेरोजगारी बदलाव और प्रवासी मजदूरों के मुद्दे ने उस मतदाता समूह को बेहद आकर्षित किया जिसका जन्म 1995 और उसके बाद हुआ है, जिसकी स्मृति में लालू राज के जंगल राज की कोई तस्वीर है ही नहीं। उस पर एनडीए नेताओं की इस भयादोहन की राजनीति कि तेजस्वी के मुख्यमंत्री बनने का मतलब राजद का जंगल राज है, का असर नहीं दिखा और राजद के मत प्रतिशत में खासी वृद्धि हुई।

चिराग पासवान भी एक बड़ा फैक्टर

इस लिहाज से यह चुनाव अगर किसी एक व्यक्ति का चुनाव कहा जा सकता है तो वह तेजस्वी यादव हैं। दूसरी तरफ इन चुनावों को प्रभावित करने में लोजपा नेता चिराग पासवान भी एक बड़ा फैक्टर हैं। नीतीश कुमार और उनकी सरकार की छवि बिगाड़ने का सबसे बड़ा काम चिराग ने किया। जब तेजस्वी या कांग्रेस का कोई नेता नीतीश कुमार और उनकी सरकार पर कोई आरोप लगाता था तो आम जन उसे विपक्ष के आरोप मानकर खारिज कर देते थे। लेकिन चिराग पासवान और उनकी पार्टी एनडीए का घटक बिहार और देश दोनों जगह है। चिराग के स्वर्गीय पिता रामविलास पासवान केंद्र में मंत्री थे। बिहार सरकार को भी एलजीपी के दो विधायकों का समर्थन रहा था।

इसलिए जब चिराग ने जद(यू) के खिलाफ मोर्चा खोला और नीतीश कुमार पर भ्रष्टाचार से लेकर कुशासन तक के आरोप लगाने शुरू कर दिए और तेजस्वी से ज्यादा पिछले 15 साल का हिसाब नीतीश से मांगना शुरू किया तो लोगों में यह धारणा बन गई कि एनडीए में सब ठीक नहीं है और अगर पक्ष वाला ही आरोप लगा रहा है तो जरूर कोई गड़बड़ होगी। लोजपा ने जिस तरह जद(यू) के खिलाफ सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारे जिनमें कई भाजपा से ही आए थे, तो यह धारणा और मजबूत हो गई कि इसके पीछे नीतीश को कमजोर करने की भाजपा की रणनीति है। नतीजा एक तरफ जद(य़ू) कार्यकर्ताओं का मनोबल कमजोर हुआ वहीं एनडीए के जनाधाऱ वर्ग के विभिन्न जातीय समूहों में इस कदर खटास बढ़ी कि कौन किसे वोट देगा इसका आकलन करना ही मुश्किल हो गया।

चिराग पासवान ने एक तरह से उन बच्चों की तरह जद(यू) के स्टंप उखाड़ने का काम किया है जो मैदान में पहुंचकर खेलने की जिद करते हैं और जब बड़ी टीमें उन्हें खिलाने से मना कर देती हैं तो दौड़कर स्टंप उखाड़कर खेल बिगाड़कर भाग जाते हैं। कुल मिलाकर यह चुनाव बिहार की राजनीति में एक युग के बदलाव का चुनाव बन गया ,जिसमें मंडल राजनीति की पुरानी पीढ़ी का अस्त और मंडलोत्तर सियासत की अगुआ नई पीढ़ी का उदय हो रहा है।

सार

आमतौर पर भाजपा अपना एजेंडा सेट करने में सिद्धहस्त है और नीतीश कुमार को तेजस्वी के मुकाबले ज्यादा विश्वस्त और भरोसेमंद नेता के तौर पर पेश किया जा रहा था, उसे तेजस्वी के बेरोजगारी, प्रवासी मजदूरों की पीड़ा और बदलाव के एजेंडे ने पीछे छोड़ दिया…

विस्तार

बेहद रस्साकसी के बाद भाजपा, जनता दल(य़ू) के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक ने गठबंधन (एनडीए) ने बिहार विधानसभा चुनावों में बहुमत पाकर अपनी सरकार फिर बनाने का रास्ता साफ कर लिया। गठबंधन धर्म का निर्वाह करते हुए भाजपा कम सीटों वाले जद(यू) के नेता नीतीश कुमार को फिर मुख्यमंत्री बना रही है, लेकिन कितने समय के लिए और कब वह नीतीश की जगह बिहार में अपने किसी नेता को मुख्यमंत्री बनाएगी, इसका जवाब भविष्य में ही मिलेगा, क्योंकि पिछले करीब डेढ़ दशक से नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाए रखने वाली भाजपा,उसके कार्यकर्ता और समथर्क जनाधार अब बिहार में अपना मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं।

क्या पांच साल का कार्यकाल पूरा कर पाएंगे नीतीश?

भाजपा के भीतर भी इसके स्वर उठे हैं, लेकिन फिलहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, गृह मंत्री अमित शाह, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष संजय जायसवाल और उप मुख्यमंत्री व भाजपा जद(यू) गठबंधन के शिल्पकार सुशील मोदी समेत पार्टी के सभी बड़े नेता साफ कर चुके हैं कि भले ही भाजपा की सीटें जद(यू) से काफी ज्यादा हैं, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनेंगे। लेकिन यह किसी नेता ने नहीं कहा कि नीतीश अगले पूरे पांच साल के लिए मुख्यमंत्री बने रहेंगे और क्योंकि चुनाव में नीतीश कुमार खुद इस चुनाव को अपना आखिरी चुनाव कह चुके हैं तो भाजपा निश्चित रूप से अगले चुनाव से पहले बिहार में अपना मुख्यमंत्री चाहेगी, जिसके नेतृत्व में 2025 का विधानसभा चुनाव लड़ सके।

आती हुई पीढ़ी बनाम जाती हुई पीढ़ी!

इस तरह नीतीश कुमार ने बिहार की सियासत से विदाई लेने से पहले राज्य में भाजपा की अपनी सरकार बनाने की जमीन तैयार कर दी है। अब बिहार की लड़ाई भाजपा बनाम उस राष्ट्रीय जनता दल से होगी, जिसके नेता तेजस्वी यादव होंगे। बिहार का यह चुनाव नीतीश कुमार को बचाने और तेजस्वी यादव को बनाने के नाम पर लड़ा गया। आने वाले दिनों में जब भी 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों की चर्चा होगी, इसे नीतीश बनाम तेजस्वी के बहाने आती हुई पीढ़ी बनाम जाती हुई पीढ़ी के संघर्ष के रूप में याद किया जाएगा।

इन चुनावों के नतीजों से जहां बिहार की सियासत से नीतीश कुमार की कमजोर होती ताकत की इबारत लिख दी गई है, वहीं इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के एक बार फिर नीतीश सरकार के प्रति सत्ता विरोधी रूझान पर भारी पड़ते के रूप में भी देखा जा सकता है। क्योंकि मोदी ने बिहार के दो करीब एक दर्जन चुनावी जनसभाओं को संबोधित किया, जिनमें धारा 370, भारत माता की जय, पुलवामा और राम मंदिर तक के मुद्दे उठाए और जिस रस्साकसी के बाद भाजपा राज्य में राजद से महज एक सीट पीछे रहकर दूसरी नंबर की पार्टी बनी है, उससे साबित है कि बिहार में एनडीए का खिसकता जनाधार मोदी पर भरोसा करके वापस लौट आया।

नीतीश ने अपनाया हर हथकंडा

इन चुनावों में जिस तरह नीतीश कुमार ने बार-बार वाणी का संयम खोया, जातियों की संख्या के आधार पर आरक्षण का दांव चला और आखिर में इस चुनाव को अपना आखिरी चुनाव बता कर मार्मिक अपील की, उससे यह लगता है कि नीतीश कुमार को चुनाव में पराजय का खतरा दिखने लगा था और वह हर वो हथकंडा अपना रहे थे जिससे खिसकती जमीन को बचाया जा सके। नतीजों के बाद नीतीश की जमीन तो कमजोर हुई है लेकिन फिलहाल बिहार की राजनीति से तो उनकी विदाई अभी नहीं होगी, लेकिन अब उन्हें गठबंधन के बड़े दल भाजपा के पूरे दबाव में रहना होगा। नीतीश कुमार के एक करीबी मित्र राजनेता के शब्दों में नीतीश जी मुख्यमंत्री तो बने रहेंगे लेकिन श्रीहीन रहेंगे।

कभी नीतीश को कर्पूरी ठाकुर ने नहीं दिया था टिकट

इन चुनावों की पहली खास बात ये रही कि वह नीतीश कुमार जिन्हें कभी बिहार के दिग्गज नेता रहे कर्पूरी ठाकुर ने 1977 में विधानसभा चुनाव में टिकट देना भी मुनासिब नहीं समझा था और चौधरी चरण सिंह के हस्तक्षेप से उन्हें टिकट मिला, आज बिहार की सियासत के सबसे बड़े नेता हैं और देश के शक्तिशाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी उनका सहारा पिछले लोकसभा और मौजूदा विधानसभा चुनावों में लेना पड़ा। लेकिन वही नीतीश कुमार जिन्हें कभी न सिर्फ अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी की भाजपा ने बिहार में अपना नेता माना और मुख्यमंत्री बनाए रखा, बल्कि 2015 में धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव के राजद ने भी नीतीश को ही आगे करके चुनाव लड़ा वह लालू यादव के उस बेटे जिसे उन्होंने अपना उप मुख्यमंत्री बनाया था, के सामने आखिरी दौर तक इतने लाचार हो गए कि उन्हें अपने आखिरी चुनाव की दुहाई देनी पड़ी। इसके बावजूद उनकी सीटें पिछले चुनाव की तुलना में 70 से घटकर 42 रह गईं।

चौधरी चरण सिंह ने दिया टिकट

गौरतलब है कि 1977 में बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने से लेकर आज तक नीतीश कुमार ने हार और जीत दोनों ही देखी और हर चुनाव के बाद उन्होंने नया मुकाम हासिल किया। पूर्व केंद्रीय मंत्री और एक जमाने में नीतीश कुमार के बेहद शुभचिंतक रहे स्वर्गीय बेनीप्रसाद वर्मा ने कभी बताया था कि किस तरह 1977 में जब बिहार विधानसभा के चुनाव हो रहे थे,तो नीतीश कुमार जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके थे, उनके पास आए और विधानसभा चुनाव लड़ने की इच्छा जताई। उन दिनों उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा आदि राज्यों में टिकट वितरण में चरण सिंह का फैसला अंतिम होता था।

बेनी प्रसाद वर्मा जो तब चरण सिंह की बेहद विश्वस्त थे और युवा लोकदल के राष्ट्रीय महासचिव रह चुके थे, ने नीतीश कुमार की सिफारिश चौधरी चरण सिंह से की। उन्होंने बिहार के उम्मीदवारों की सूची देखी जो कर्पूरी ठाकुर ने अंतिम रूप देकर स्वीकृति के लिए भेजी थी। उसमें नीतीश कुमार का नाम नहीं था। बेनी प्रसाद वर्मा का दावा था कि उनके बहुत आग्रह करने पर चरण सिंह ने कर्पूरी द्वारा भेजे गए नाम को काटकर नीतीश कुमार का नाम लिख दिया। लेकिन नीतीश यह चुनाव हार गए पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।

तेजस्वी से हारते-हारते जीते नीतीश

नीतीश कुमार 1980 में फिर लड़े और हारे। लेकिन 1985 में वह फिर लड़े और जीते। इसके बाद 1989 में लोकसभा में चुनकर आए। केंद्र में मंत्री बने। मंडल राजनीति की सियासत में वह बिहार में लालू प्रसाद यादव विरोधी ध्रुव बन गए और 2005 में लालू और राजद को सत्ता से बेदखल करके ही दम लिया। जिस नीतीश कुमार ने 2005 में उन लालू प्रसाद यादव को बिहार की सत्ता से बाहर किया था जो केंद्र की यूपीए सरकार में रेल मंत्री थे और उनका दावा था कि जब तक समोसे में आलू बिहार में लालू। यह बिडंबना है कि वही नीतीश कुमार आज लालू प्रसाद यादव के उस बेटे से जिसे नीतीश के सामने राजनीति में नौसिखिया ही माना जाएगा, हारते-हारते जीते हैं और वह भी तब जब उनके साथ देश की सबसे शक्तिशाली पार्टी भाजपा और देश के सबसे शक्तिशाली नेता नरेंद्र मोदी थे। वैसे भी 2015 में नीतीश के जद(य़ू) की सीटें लालू के राजद से महज दस ही कम थीं, जबकि लालू के बेटे से मुकाबले में अब यह अंतर तीन गुना सीटों का हो गया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो चुनाव में एक दर्जन सभाओं को संबोधित करके न सिर्फ भाजपा की सीटों में इजाफा किया बल्कि एनडीए के चाणक्य कहे जाने वाले गृह मंत्री अमित शाह का बिहार चुनाव से पूरी तरह दूर रहना भी बताता है कि मोदी मैजिक को किसी सहारे की जरूरत नहीं है। नीतीश कुमार के कमजोर होने की क्या वजह है। नीतीश की प्रशासनिक क्षमता, ईमानदारी और राजनीतिक दृष्टि आज भी बरकरार है। लेकिन उनके 2013 के पाला बदल ने उनसे उस सामाजिक राजनीतिक वर्ग को नाराज किया, जिसके सहारे उन्होंने 1996 से 2013 तक केंद्र और राज्स की सत्ता पर काबिज रहे।

नीतीश कुमार ने आसान रास्ता अपनाया

2015 में लालू यादव से दोस्ती ने नीतीश के उस पुराने सामाजिक आधार को मजबूत किया जिसके वह सच्चे वारिस थे और अगर वह इस पाले में डटे रहते तो लालू प्रसाद यादव महज अपनी सजातीय जनाधार के एक वर्ग तक ही सीमित रह जाते और सामाजिक न्याय की मंडल राजनीति का सारा पिछड़ा, अति पिछड़ा दलित और महादलित और अल्पसंख्यक जनाधार नीतीश कुमार के साथ एकजुट होता। साथ ही उनकी प्रशासनिक क्षमता और ईमानदारी समाज के उस हिस्से को भी उनसे जोड़ती जो जातीय गोलबंदी से हटकर वोट देता है। नीतीश अपने इस जनाधार और अपील का विस्तार बिहार की सीमाओं से बाहर भी कर सकते थे और भाजपा विरोधी मोर्चे के सर्वमान्य नेता हो सकते थे।

लेकिन इसके लिए नीतीश कुमार को वक्त के साथ-साथ सियासी लड़ाई का एक लंबा सफर तय करना पड़ता। लेकिन नीतीश कुमार ने आसान रास्ता अपनाया और उन्होंने सिर्फ अपनी बिहार सरकार को बचाने के लिए उसी भाजपा से समझौता किया, जिसके नेता नरेंद्र मोदी और अमित शाह हैं और जिनके सवाल पर नीतीश कुमार ने बेहद आक्रामक ढंग से भाजपा से नाता तोड़ा था। उनके इस कदम से उनका वह सारा सामाजिक जनाधार खिसक गया जो उनसे मोदी विरोधी राजनीति का नेतृत्व करने की उम्मीद संजोए हुए था, जबकि भाजपा समर्थक सामाजिक वर्ग ने नीतीश को उस तरह मन से स्वीकार नहीं किया जैसे कि उसने 2005 और 2010 में स्वीकारा था।

न घर का रखा न घाट का

नीतीश कुमार की इसी सियासी मौकापरस्ती ने उन्हें न घर का रखा न घाट का और आज उन्हें लालू यादव के उस बेटे के सामने अपने आखिरी चुनाव की दुहाई देनी पड़ी जिसे कभी उन्होंने कभी गठबंधन के दबाव में मंत्री बनाया था। बेहद दिलचस्प रहे ये चुनाव और कई मायनों में इन्हें भविष्य में याद रखा जाएगा ।इन चुनावों का सबसे अहम पहलू ये है कि 1990 के बाद बिहार के नेताओं की जिस पीढ़ी ने तब से लेकर 2020 तक तीस साल राज्य की राजनीति की अगुआई की उस पीढ़ी का यह आखिरी चुनाव है। नतीजे जो भी रहे हों, लेकिन इसी चुनाव के गर्भ से बिहार की सियासत के अगले सालों के लिए कम से कम दो युवा नेता तेजस्वी यादव और चिराग पासवान भी तैयार हो गए हैं और लंबे समय बाद बिहार में चुनावी शतरंज की बिसात पर जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ऊपर बेरोजगारी, प्रवासी मजदूरों की समस्या और स्कूल अस्पताल के मुद्दे राजनीतिक विमर्श में भारी पड़ते दिखाई दिए। इसका श्रेय अगर सबसे ज्यादा किसी को दिया जा सकता है तो तेजस्वी यादव को ही देना होगा।

अज्ञातवास में रहे थे तेजस्वी!

तेजस्वी यादव जो विधानसभा में विपक्ष के नेता होने के साथ साथ पिता लालू प्रसाद यादव की चुनाव में गैर मौजूदगी में राजद की भी कमान संभाल रहे हैं, ने बेहद समझदारी और परिपक्वता दिखाई है। लोकसभा चुनावों में राजद और कांग्रेस गठबंधन की पराजय के बाद तेजस्वी कई महीनों के लिए अज्ञातवास जैसी स्थिति में चले गए थे। चुनाव से करीब दो महीने पहले तक ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक यही कहते थे कि बिहार में नीतीश सरकार के खिलाफ माहौल तो है लेकिन तेजस्वी यादव विकल्प नहीं बन पा रहे है, इसलिए ले देकर नीतीश की अगुआई में एनडीए की वापसी हो जाएगी। लेकिन इसे करिश्मा ही कहा जाएगा कि इन सारे अनुमानों के विपरीत तेजस्वी ने बिहार की चुनावी सियासत में न सिर्फ अपने सहयोगियों कांग्रेस और वाम दलों के साथ सीटों के बंटवारे को सहज ढंग से किया बल्कि उन्होंने पूरे चुनाव का विमर्श ही बदल दिया और एनडीए के मुकाबले महागठबंधन के पिछड़ने के बावजूद उन्होंने राजद को भाजपा आगे रखकर उसे विधानसभा में सबसे बड़ा दल बनाया।

हिंदुत्व और राष्ट्रवादी एजेंडा हुआ फेल!

आम तौर पर भाजपा अपना एजेंडा सेट करने में सिद्धहस्त है और नीतीश कुमार को तेजस्वी के मुकाबले ज्यादा विश्वस्त और भरोसेमंद नेता के तौर पर पेश किया जा रहा था, उसे तेजस्वी के बेरोजगारी, प्रवासी मजदूरों की पीड़ा और बदलाव के एजेंडे ने पीछे छोड़ दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी , भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनात समेत सभी नेताओं ने चुनाव को हिंदुत्व और राष्ट्रवादी एजेंडे की ओर ले जाने की भरसक कोशिश की लेकिन तेजस्वी अपने मुद्दों से टस से मस नहीं हुए और पूरे चुनाव का मुख्य विमर्श बेरोजगारी प्रवासी मजदूर और बदलाव हो गए। हमेशा जातीय और सांप्रदायिक गोलबंदी पर होने वाले बिहार चुनावों में बेरोजगारी बदलाव और प्रवासी मजदूरों के मुद्दे ने उस मतदाता समूह को बेहद आकर्षित किया जिसका जन्म 1995 और उसके बाद हुआ है, जिसकी स्मृति में लालू राज के जंगल राज की कोई तस्वीर है ही नहीं। उस पर एनडीए नेताओं की इस भयादोहन की राजनीति कि तेजस्वी के मुख्यमंत्री बनने का मतलब राजद का जंगल राज है, का असर नहीं दिखा और राजद के मत प्रतिशत में खासी वृद्धि हुई।

चिराग पासवान भी एक बड़ा फैक्टर

इस लिहाज से यह चुनाव अगर किसी एक व्यक्ति का चुनाव कहा जा सकता है तो वह तेजस्वी यादव हैं। दूसरी तरफ इन चुनावों को प्रभावित करने में लोजपा नेता चिराग पासवान भी एक बड़ा फैक्टर हैं। नीतीश कुमार और उनकी सरकार की छवि बिगाड़ने का सबसे बड़ा काम चिराग ने किया। जब तेजस्वी या कांग्रेस का कोई नेता नीतीश कुमार और उनकी सरकार पर कोई आरोप लगाता था तो आम जन उसे विपक्ष के आरोप मानकर खारिज कर देते थे। लेकिन चिराग पासवान और उनकी पार्टी एनडीए का घटक बिहार और देश दोनों जगह है। चिराग के स्वर्गीय पिता रामविलास पासवान केंद्र में मंत्री थे। बिहार सरकार को भी एलजीपी के दो विधायकों का समर्थन रहा था।

इसलिए जब चिराग ने जद(यू) के खिलाफ मोर्चा खोला और नीतीश कुमार पर भ्रष्टाचार से लेकर कुशासन तक के आरोप लगाने शुरू कर दिए और तेजस्वी से ज्यादा पिछले 15 साल का हिसाब नीतीश से मांगना शुरू किया तो लोगों में यह धारणा बन गई कि एनडीए में सब ठीक नहीं है और अगर पक्ष वाला ही आरोप लगा रहा है तो जरूर कोई गड़बड़ होगी। लोजपा ने जिस तरह जद(यू) के खिलाफ सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारे जिनमें कई भाजपा से ही आए थे, तो यह धारणा और मजबूत हो गई कि इसके पीछे नीतीश को कमजोर करने की भाजपा की रणनीति है। नतीजा एक तरफ जद(य़ू) कार्यकर्ताओं का मनोबल कमजोर हुआ वहीं एनडीए के जनाधाऱ वर्ग के विभिन्न जातीय समूहों में इस कदर खटास बढ़ी कि कौन किसे वोट देगा इसका आकलन करना ही मुश्किल हो गया।

चिराग पासवान ने एक तरह से उन बच्चों की तरह जद(यू) के स्टंप उखाड़ने का काम किया है जो मैदान में पहुंचकर खेलने की जिद करते हैं और जब बड़ी टीमें उन्हें खिलाने से मना कर देती हैं तो दौड़कर स्टंप उखाड़कर खेल बिगाड़कर भाग जाते हैं। कुल मिलाकर यह चुनाव बिहार की राजनीति में एक युग के बदलाव का चुनाव बन गया ,जिसमें मंडल राजनीति की पुरानी पीढ़ी का अस्त और मंडलोत्तर सियासत की अगुआ नई पीढ़ी का उदय हो रहा है।

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