Rahul Gandhi, Tejaswi yadav, Upendra Kushwaha, Jitan ram manjhi
– फोटो : Amar Ujala
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तेजस्वी यादव के पास भले ही पिता लालू यादव जैसा कद, कौशल, भाषा शैली न हो लेकिन राजद के मुख्यमंत्री पद का चेहरा वही हैं। लालू प्रसाद यादव के पास अपना उत्तराधिकारी देने के लिए तेजस्वी से तेज कोई दूसरा चेहरा भी नहीं है। वहीं तेजस्वी और तेज प्रताप का समीकरण भी निराला है। इस समीकरण में बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी भी काफी फिट बैठती हैं। ऐसे में लालू यादव की लालटेन फोड़ने के लिए बिहार विधानसभा चुनाव से एन पहले पर्दे के पीछे से जमकर राजनीति के तीर चल रहे हैं।
तेजस्वी भी कम जिम्मेदार नहीं
इसके लिए खुद तेजस्वी ही जिम्मेदार हैं। सूत्र का कहना है कि तेज प्रताप की छवि पहले से बिगड़ी थी। दोनों भाइयों के तौर तरीकों से पार्टी में लालू युग के कई नेता काफी नाराज हो गए। बताते हैं इसी उधेड़बुन में राष्ट्रीय जनता दल अपनी धार खोता गया और महागठबंधन में फूट बढ़ती चली गई। दिल्ली की एक बड़ी सर्वे एजेंसी के सूत्र की मानें तो 2015 के विधानसभा चुनाव के बाद राजद ने महागठबंधन में एकता बनाए रखने का कोई प्रयास नहीं किया। लिहाजा भाजपा और जद (यू) को विपक्ष से कोई खतरा नहीं महसूस नहीं हुआ।
पहले माझी टूटे, फिर उपेन्द्र ने पकड़ी अलग राह
जीतनराम मांझी के बिहार का मुख्यमंत्री बनने और नई पार्टी बना लेने के बाद से वे राज्य में महादलितों का चेहरा हैं। बताते हैं मांझी पर समय रहते नीतीश कुमार की नजर पड़ गई थी। इसका एक बड़ा कारण लोकसभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान की नखरेबाजी थी। लिहाजा टीम नीतीश ने पहले जीतन राम मांझी से संपर्क बढ़ाया। सुशील कुमार मोदी की टीम भाजपा ने रालोसपा के उपेन्द्र कुशवाहा को करीब लाने की कोशिश शुरू की। सबका लक्ष्य एक था। राष्ट्रीय जनता दल के राजनीतिक इकबाल को कमजोर करके महागठबंधन की नींव हिलाना। राजनीति के जादूगर ने जीतनराम मांझी को अपने साथ मिलाकर पहला लक्ष्य आसानी से तय कर लिया। बताते हैं इसी खेल में उपेन्द्र कुशवाहा और तेजस्वी यादव ने भी अलग रास्ता चुन लिया।
असल का खेल तो तीसरा मोर्चा है
उपेन्द्र कुशवाहा की रालोसपा ने बसपा के साथ हाथ मिलाकर विधानसभा चुनाव में उतरने का फैसला किया है। कारण साफ है कि तेजस्वी यादव ने 10-12 सीटों से अधिक रालोसपा को देने से मना कर दिया था। नीतीश कुमार और उपेन्द्र कुशवाहा के पहले से तल्ख समीकरण के कारण भाजपा की इच्छा के बाद भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में उपेन्द्र कुशवाहा की एंट्री नहीं हो पाई, लेकिन बिहार की राजनीति में लगभग हर सीट पर राष्ट्रीय जनता दल और महागठबंधन को नुकसान पहुंचाने की रणनीति तैयार हो गई। रालोसपा और बसपा ने बिहार के दूसरे छोटे दलों के लिए साथ आने का मंच दे दिया। सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की आदी मायावती ने भी पर्दे के पीछे की राजनीति से अपना उद्देश्य जोड़ते हुए बसपा के नेताओं को हरी झंडी दे दी।
अब कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल ही महागठबंधन है
बिहार विधानसभा चुनाव का शतरंज मतदान से एक महीने पहले बिछ चुका है। राजनीति के पंडित 220 सदस्यीय विधानसभा में जद(यू) और भाजपा की बड़ी आसान सी जीत मानकर चल रहे हैं। मांझी की हम के आ जाने के बाद अब भाजपा और जद(यू) ने मिलकर लोजपा के चिराग पासवान की हेकड़ी निकालने की तैयारी कर ली है। चिराग कम से कम 40 सीट चाहते हैं और किसी भी कीमत पर 25 सीट से ऊपर देना जद(यू) नेता सही नहीं मानते। यह भी दिलचस्प है कि चिराग पासवान और तेजस्वी यादव बहुत अच्छे दोस्त हैं। दोनों में अच्छा संवाद है। पर्दे की राजनीति ने ऐसा गुल खिलाया है कि महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल के बाद दूसरा सबसे बड़ा दल या सात फीसदी से अधिक वोट पाने वाली पार्टी कांग्रेस ही बची है। कांग्रेस के नेता भी इस बार 70 से अधिक विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ने का सपना देख रहे हैं। इसकी भी रणनीति तारिक अनवर, शकील अहमद की देख-रेख में तैयार हो रही है।
शरद यादव की आशंका सही साबित हुई
जबलपुर के शरद यादव को राष्ट्रीय नेता की पहचान बिहार की राजनीति से ही मिली। शरद यादव के बारे में कहा जाता है कि बिहार की राजनीति को वह तरीके से समझते हैं। शरद यादव ने चुनाव से पहले भी तीसरे मोर्चे की संभावना पर आशंका जताई थी। स्वास्थ्य लाभ ले रहे शरद यादव का मानना है कि बिहार विधानसभा चुनाव में आसान जीत पाने के लिए भाजपा और जद(यू) की रुचि भी कोई तीसरा मोर्चा खड़ा होने के पक्ष में रहेगी। ताकि महागठबंधन को और कमजोर किया जा सके। यानी कुछ ऐसा कि 2009 के विधानसभा चुनाव की तरह कांग्रेस सभी सीटों पर चुनाव लड़ गई थी और राष्ट्रीय जनता दल को पूरे बिहार में इसका खामियाजा भुगतना पड़ा था। वैसे भी अभी असदुद्दीन ओवैसी का पत्ता खोलना बाकी है।
सार
जीतनराम मांझी के बिहार का मुख्यमंत्री बनने और नई पार्टी बना लेने के बाद से वे राज्य में महादलितों का चेहरा हैं। बताते हैं मांझी पर समय रहते नीतीश कुमार की नजर पड़ गई थी। इसका एक बड़ा कारण लोकसभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान की नखरेबाजी थी…
विस्तार
तेजस्वी यादव के पास भले ही पिता लालू यादव जैसा कद, कौशल, भाषा शैली न हो लेकिन राजद के मुख्यमंत्री पद का चेहरा वही हैं। लालू प्रसाद यादव के पास अपना उत्तराधिकारी देने के लिए तेजस्वी से तेज कोई दूसरा चेहरा भी नहीं है। वहीं तेजस्वी और तेज प्रताप का समीकरण भी निराला है। इस समीकरण में बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी भी काफी फिट बैठती हैं। ऐसे में लालू यादव की लालटेन फोड़ने के लिए बिहार विधानसभा चुनाव से एन पहले पर्दे के पीछे से जमकर राजनीति के तीर चल रहे हैं।
तेजस्वी भी कम जिम्मेदार नहीं
इसके लिए खुद तेजस्वी ही जिम्मेदार हैं। सूत्र का कहना है कि तेज प्रताप की छवि पहले से बिगड़ी थी। दोनों भाइयों के तौर तरीकों से पार्टी में लालू युग के कई नेता काफी नाराज हो गए। बताते हैं इसी उधेड़बुन में राष्ट्रीय जनता दल अपनी धार खोता गया और महागठबंधन में फूट बढ़ती चली गई। दिल्ली की एक बड़ी सर्वे एजेंसी के सूत्र की मानें तो 2015 के विधानसभा चुनाव के बाद राजद ने महागठबंधन में एकता बनाए रखने का कोई प्रयास नहीं किया। लिहाजा भाजपा और जद (यू) को विपक्ष से कोई खतरा नहीं महसूस नहीं हुआ।
पहले माझी टूटे, फिर उपेन्द्र ने पकड़ी अलग राह
जीतनराम मांझी के बिहार का मुख्यमंत्री बनने और नई पार्टी बना लेने के बाद से वे राज्य में महादलितों का चेहरा हैं। बताते हैं मांझी पर समय रहते नीतीश कुमार की नजर पड़ गई थी। इसका एक बड़ा कारण लोकसभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान की नखरेबाजी थी। लिहाजा टीम नीतीश ने पहले जीतन राम मांझी से संपर्क बढ़ाया। सुशील कुमार मोदी की टीम भाजपा ने रालोसपा के उपेन्द्र कुशवाहा को करीब लाने की कोशिश शुरू की। सबका लक्ष्य एक था। राष्ट्रीय जनता दल के राजनीतिक इकबाल को कमजोर करके महागठबंधन की नींव हिलाना। राजनीति के जादूगर ने जीतनराम मांझी को अपने साथ मिलाकर पहला लक्ष्य आसानी से तय कर लिया। बताते हैं इसी खेल में उपेन्द्र कुशवाहा और तेजस्वी यादव ने भी अलग रास्ता चुन लिया।
असल का खेल तो तीसरा मोर्चा है
उपेन्द्र कुशवाहा की रालोसपा ने बसपा के साथ हाथ मिलाकर विधानसभा चुनाव में उतरने का फैसला किया है। कारण साफ है कि तेजस्वी यादव ने 10-12 सीटों से अधिक रालोसपा को देने से मना कर दिया था। नीतीश कुमार और उपेन्द्र कुशवाहा के पहले से तल्ख समीकरण के कारण भाजपा की इच्छा के बाद भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में उपेन्द्र कुशवाहा की एंट्री नहीं हो पाई, लेकिन बिहार की राजनीति में लगभग हर सीट पर राष्ट्रीय जनता दल और महागठबंधन को नुकसान पहुंचाने की रणनीति तैयार हो गई। रालोसपा और बसपा ने बिहार के दूसरे छोटे दलों के लिए साथ आने का मंच दे दिया। सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की आदी मायावती ने भी पर्दे के पीछे की राजनीति से अपना उद्देश्य जोड़ते हुए बसपा के नेताओं को हरी झंडी दे दी।
अब कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल ही महागठबंधन है
बिहार विधानसभा चुनाव का शतरंज मतदान से एक महीने पहले बिछ चुका है। राजनीति के पंडित 220 सदस्यीय विधानसभा में जद(यू) और भाजपा की बड़ी आसान सी जीत मानकर चल रहे हैं। मांझी की हम के आ जाने के बाद अब भाजपा और जद(यू) ने मिलकर लोजपा के चिराग पासवान की हेकड़ी निकालने की तैयारी कर ली है। चिराग कम से कम 40 सीट चाहते हैं और किसी भी कीमत पर 25 सीट से ऊपर देना जद(यू) नेता सही नहीं मानते। यह भी दिलचस्प है कि चिराग पासवान और तेजस्वी यादव बहुत अच्छे दोस्त हैं। दोनों में अच्छा संवाद है। पर्दे की राजनीति ने ऐसा गुल खिलाया है कि महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल के बाद दूसरा सबसे बड़ा दल या सात फीसदी से अधिक वोट पाने वाली पार्टी कांग्रेस ही बची है। कांग्रेस के नेता भी इस बार 70 से अधिक विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ने का सपना देख रहे हैं। इसकी भी रणनीति तारिक अनवर, शकील अहमद की देख-रेख में तैयार हो रही है।
शरद यादव की आशंका सही साबित हुई
जबलपुर के शरद यादव को राष्ट्रीय नेता की पहचान बिहार की राजनीति से ही मिली। शरद यादव के बारे में कहा जाता है कि बिहार की राजनीति को वह तरीके से समझते हैं। शरद यादव ने चुनाव से पहले भी तीसरे मोर्चे की संभावना पर आशंका जताई थी। स्वास्थ्य लाभ ले रहे शरद यादव का मानना है कि बिहार विधानसभा चुनाव में आसान जीत पाने के लिए भाजपा और जद(यू) की रुचि भी कोई तीसरा मोर्चा खड़ा होने के पक्ष में रहेगी। ताकि महागठबंधन को और कमजोर किया जा सके। यानी कुछ ऐसा कि 2009 के विधानसभा चुनाव की तरह कांग्रेस सभी सीटों पर चुनाव लड़ गई थी और राष्ट्रीय जनता दल को पूरे बिहार में इसका खामियाजा भुगतना पड़ा था। वैसे भी अभी असदुद्दीन ओवैसी का पत्ता खोलना बाकी है।